Wednesday, June 8, 2011

यह इतिहास है या प्रोपगैंडा ?

महमूद गज़नवी के नाम से शयद ही कोई पढ़ा-लिखा भारतीय अनभिज्ञ हो। इतिहास के पन्नों पर लिखा है कि वह गज़नी (अफ़गानिस्तान) का सुल्तान था। वह एक तुर्क था। उसके बाप का नाम सुबुक्तगीन था। वह 27 वर्श की आयु में सन् 998 में गज़नी का शासक बना। वह बड़ा ही कुरुप था। साहस और वीरता की उसमें कमी न थी, मगर वह असभ्य और क्रूर न था।  भारतीय सम्पत्ति को लूटना और इस्लाम धर्म का प्रचार उसका मुख्य उद्देष्य था। इसी उद्देश्‍य की पूर्ति के लिए उसने लगभग 1000 ई0 में भारत पर आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिए। उसने भारत पर 17 आक्रमण किए। उसने हिंदू मंदिरों को नष्‍ट- भ्रष्‍ट किया और हिंदुओं का कत्लेआम किया। महमूद ने सन् 1025-1026 में भारत के प्रसिद्ध मंदिर सोमनाथ पर आक्रमण किया। यह भारत पर उसका 16वां आक्रमण था। यह मंदिर काठियावाड़ के समुद्र तट पर स्थित है।
सरन प्रकाशन मंदिर मेरठ से प्रकाशित ‘‘भारत वर्ष  का इतिहास’’ नाम की एक पुस्तक जो मैंने लगभग 20 वर्ष पहले पढ़ी थी, लिखा है, ‘‘मंदिर की आय के लिए 10 हजार गांव लगे थे। मंदिर में 100 पुजारी, 500 नर्तकियां तथा 200 गायक दर्शकों को भगवान के गीत सुनाया करते थे। मंदिर की अपार सम्पत्ति से ललचाकर महमूद अजमेर के रास्ते सोमनाथ के द्वार पर जा पहुंचा। राजपूतों ने मंदिर की रक्षा के लिए घमासान युद्ध किया, लगभग 5 हजार हिंदू मारे गए और विजय महमूद गजनवी को मिली। --- 

सोमनाथ के मंदिर में शताब्दियों से एकत्रित अपार सम्पत्ति को लेकर उसने गज़नी के लिए प्रस्थान किया।’’ लगभग 10 वर्ष पहले मैंने राष्‍ट्र  कवि रामधारी सिंह दिनकर की प्रसिद्ध पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पढ़ी थी। उसमें दिनकर लिखते हैं, ‘‘सोमनाथ मंदिर का ध्वंस करने से पूर्व भी महमूद गज़नवी ने अनेक मंदिरों का विनाश किया था। लेकिन सोमनाथ मंदिर के पुजारी इस विश्‍वास में थे कि अन्य देवताओं पर सोमनाथ की कृपा नहीं रहने से ही उनके मंदिरों का तोड़ा जाना सम्भव हुआ है। जब महमूद को यह खबर मिली, उसने ठान लिया कि सोमनाथ को तोड़ कर वह हिंदुओं के इस विश्‍वास को उन्मूलित करेगा कि पत्थर का देवता षक्तिशाली होता है। महमूद, सोमनाथ सन् 1025 ई0 की जनवरी में पहुंचा। मंदिर की रक्षा के लिए सेना आ जुटी थी, लेकिन हिंदू इस विश्‍वास में आनन्द मना रहे थे कि मुसलमानों का सफाया करने के लिए ही सोमनाथ जी ने उन्हें बुलाकर इकट्ठा कर लिया है। सोमनाथ की रक्षा के प्रयास में कोई 50 हजार हिंदू मंदिर के द्वार पर मारे गए और मंदिर तोड़कर महमूद ने कोई 2 करोड़ दीनार की सम्पत्ति लूट ली।’’ (पृ0, 261-262)


इसी माह सितम्बर में मैंने डॉ. सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात’ जी की पुस्तक ‘‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?’’ को देखा, उसके पेज न0 203 पर सोमनाथ मंदिर के विषय में लिखा है, ‘‘इतिहासकार इब्ने असीर ने लिखा है कि लोग किले की दीवारों पर बैठे इस विचार से प्रसन्न हो रहे थे कि ये दुस्साहसी मुसलमान अभी चंद मिनटों में नष्‍ट हो जाएंगे। वे मुसलमानों को बता रहे थे कि हमारा देवता तुम्हारे एक-एक आदमी को नष्‍ट कर देगा। जब महमूद की सेना ने नरसंहार शुरू किया, तब हिंदुओं का एक समूह दौड़ता हुआ मंदिर की मूर्ति के सामने धरती पर लेट कर उससे विजय के लिए प्रार्थना करने लगा। हिंदुओं के ऐसे दल के दल मंदिर में प्रवेश करते, जिनके हाथ गरदन के पास जुड़े होते, जो रो रहे होते और बड़े भावावेश पूर्ण ढंग से सोमनाथ की मूर्ति के आगे गिड़गिड़ा कर प्रार्थनाएं कर रहे होते। फिर वे बाहर आते, जहां उन्हें कत्ल कर दिया जाता। यह क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि हर हिंदू कत्ल नहीं हो गया। (देखेंः सर एच.एच. इलियट और जान डाउसन कृत ‘द हिस्ट्री आफ इंडिया एज टोल्ड बाई इट्स ओन हिस्टोरियनस’ पृ0 470) 


इस तरह 5 लाख अंधविश्‍वासी हिंदुओं ने सिर तो कटवा लिए, लेकिन मुकाबला एक ने भी नहीं किया।’’
अब ज़रा रूक कर सोचिए! उक्त तीनों पुस्तकों में सोमनाथ मंदिर कांड में हिंदुओं के कत्ल की जो संख्या क्रमशः  5 हजार, 50 हजार, 5 लाख लिखी है, क्या तीनों सच्ची हो सकती हैं ? यह बात एक कम शिक्षित व्यक्ति भी आसानी से समझ सकता है कि उक्त तीनों आंकड़े झूठे तो हो सकते हैं, मगर तीनों सच्चे नहीं हो सकते। अब ज़रा सोचिए! आंकड़ों की यह भिन्नता आख़िर किस ओर इशारा कर रही है ? पाठक इतिहास के उक्त पन्नों से आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हें कि हमारा इतिहास कितना स्वच्छ, निष्‍पक्ष और विश्‍वनीय है।


यह प्रूफ की गलती या कोई भूल नहीं है। यह एक प्रोपगैंडा है। यह मुसलमान और इस्लाम विरोधी मानसिकता की करतूत है। यह एक धृष्‍टता है। यह इतिहास का सांप्रदायिकरण है। हमारा इतिहास ऐसी विद्वेष पूर्ण करतूतों और प्रोपगैंडों से भरा पड़ा है। उक्त इतिहास का एक पन्ना तो बानगी मात्र है। यहां एक बात यह भी क़ाबिले-ग़ौर है कि जिस कांड में एक पक्ष के 5 लाख लोग मारे गए हो, क्या वहां दूसरे पक्ष का कोई एक व्यक्ति भी हताहत नहीं हुआ ?


इसी तरह का एक उदाहरण ‘‘सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या’’ नामक पुस्तक में लिखा है। लिखा है, ‘‘बाबर के सिपाहियों ने अयोध्या में राम मंदिर पर हमला करते समय 75 हज़ार हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया और उनके रक्त को गारे की तरह इस्तेमाल कर बाबरी मस्जिद खड़ी की।’’ यह पुस्तक उक्त तथ्य के खंडन में लिखी गई है। यह पुस्तक मेरे पास खस्ता हालत में है, जिसमें लेखक का नाम स्पष्‍ट नहीं है। एक बच्चा भी समझ सकता है कि यह एक कोरा गप्प है। एक स्थान पर लिखा है, ‘‘अयोध्या श्रीराम जन्मभूमि मंदिर तोड़े जाते समय हिंदुओं ने जान की बाज़ी लगा दी। इस लड़ाई में 1 लाख 74 हज़ार हिंदुओं की लाश गिर जाने के बाद ही मीर बाकी तोपों के जरिए मंदिर को क्षति पहुंचा सका।’’ (कनिंघम लखनऊ गजेटियर अंक-36)
 क्या इतिहास के उक्त पन्नों से यह बात साबित नहीं हो रही है कि सांप्रदायिक तत्वों द्वारा इतिहास को तोड़-मरोड़ कर ग़लत रंग देने की कुचेश्टा की गई है। ऐसा भी प्रतीत होता है कि इस्लाम और मुसलमानों के आलोचकों को इतिहास में जहां-जहां मौका मिला उसमें मनगढंत बातें जोड़ दी, छोटी सी बात को तूल देकर तिल का ताड़ बना दिया और मूल घटनाओं को विकृत करके पूरी तस्वीर ही बिगाड़ देने की हर मुमकिन कोषिष की गई।

यहां यह बात भी क़ाबिले-ग़ौर है कि भारत में चूंकि अंग्रेज़ों ने सत्ता मुसलमानों के हाथों से छीनी थी, वे नहीं चाहते थे कि हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर उनके खि़लाफ़ एकजुट हो जाए। वे चाहते थे कि दोनों क़ौमों के बीच नफ़रत और कटुता की ऐसी मज़बूत दीवार खड़ी की जाए जिसे सदियों तक न तोड़ा जा सके और वे उन्हें एक-दूसरे से लड़ाकर आराम से भारत पर हुकूमत कर सके और उनकी हुकूमत को कोई चुनौती देने वाला न हो। इस कुत्सित उद्देश्‍य के लिए इतिहास से बेहतर और कोई रास्ता नहीं हो सकता था। हिंदू और मुसलमानों के बीच पहले से ही संबंध नफ़रत और दुश्‍मनी के थे, उनको और हवा देना मुश्किल काम न था। इस उद्देश्‍य  में उनकों बड़ी हद तक कामयाबी मिली। तथ्यात्मक दृष्टि से यह बात साबित भी हो रही है कि भारतीय इतिहास को विकृत किया गया है। 
यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज़ादी के 62 सालों के बाद भी हम उसी इतिहास को अपने सिर पर ढो रहे हैं, जो हमें कायर और बेवकूफ़ साबित कर रहा है।
इतिहास के अनुसार मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा हिंदू मंदिरों और मूर्तियों को लूटा गया, तोड़ा और तबाह किया गया। हिंदुओं को पीटा और कत्ल किया गया। हिंदुओं को बलात् मुसलमान बनाया गया। हिंदुओं की खूबसूरत बहू-बेटियों को जबरदस्ती रखेल बनाया गया। यहां सवाल यह पैदा होता है कि क्या वास्तव में हिंदू इतना कायर, कमज़ोर और फुसफुसिया था कि बहुसंख्यक होकर भी उसमें विरोध की ताकत न थी ? हक़ीक़त कुछ भी हो, विडंबना यह है कि हमने अपनी उक्त कमज़ोरी, दुर्गति और बेइज़्ज़ती को और बढ़ा चढ़ा कर पेश और प्रचारित किया। जहां सौ हिंदू मरे वहां हमने एक हजार बतलाए, जहां लोग स्वेच्छा से मुसलमान बने, वहां हमने तलवार के ज़ोर पर और प्रलोभन का इलज़ाम लगाया। हमने अपनी बहू-बेटियों को भी बदनाम करने में कोई कसर न छोड़ी।


यहां लगे हाथों हिंदू मंदिरों की हालत पर भी एक सरसरी नज़र डाल ली जाए तो शायद कुछ अनुचित न होगा। मंदिरों में बेशुमार दौलत सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात थे, जिनको लूट कर हज़ारों हाथियों, ऊंटों और बैलों पर लाद कर ले जाया गया था। लिखा है कि सोमनाथ मंदिर में घड़ियाल की जंजीर ही 200 मन सोने की थी। मंदिर में देवदासियां थीं, पुजारी थे, विलास-वासना थी, आडंबर और पाखंड था। धर्म और मंदिर की आड़ में न जाने क्या-क्या होता था। विडंबना है कि हमने कभी यह ग़ौर ही नहीं किया कि आख़िर पूजास्थलों पर देवदासियों और बेशुमार दौलत हीरे-जवाहरात का भला क्या काम ? हमारी आस्थाओं और धारणाओं ने हमें निकम्मा और कायर बना दिया मगर हमने आज तक उन पर एक वैज्ञानिक दृष्टि डालने की ज़हमत गवारा न की।


उक्त लिखने का मेरा उद्देश्‍य मुस्लिम आक्रांताओं और उनके कृत्यों की तरफ़दारी करना हरगिज़ नहीं है। यहां मेरा उद्देश्‍य मात्र इतना है कि हम सच्चाई को समझने का प्रयास करें। जो इतिहास हम पढ़ रहे हैं, हम ग़ौर करें कि वह कितना निष्‍पक्ष और विश्‍वसनीय है। हम इतिहास का अध्ययन और विश्‍लेषण करने में तर्क और विवेक का इस्तेमाल करें। हम उन अंधविश्‍वासों और कर्मकांडों को छोड़ दें, जिनके कारण हम पीटते और अपमानित होते रहे हैं।

Friday, June 3, 2011

मनुस्मृति : अपराध और दंड

स्वामी जी अपनी पुस्तक ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ में मनुस्मृति के संदर्भ से लिखते हैं कि दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए। (6-27)
स्वामी जी द्वारा संदर्भित मनुस्मृति के दंड विधान पर एक दृष्टि डालिए-
कार्षापणं भवेद्दण्ड्यो त्रान्यः प्रकृतो जनः।
तत्र राजा भवेद्दण्ड्यः सहस्रमिति धारणा।।
(मनु0, 8-335)
भावार्थ - साधारण प्रजा को जिस अपराध के लिए एक पैसा दंड दिया जाता है, उसी अपराध में लिप्त होने पर राजा पर हजार पैसा दंड लगाया जाना चाहिए।


अष्टापद्यं तु शुद्रस्य स्तेये भवति किल्विषम्।
षौडशैस्तु वैश्यस्य द्वात्रिंशत्क्षत्रियस्य च।।
(मनु0, 8-236)
     भावार्थ- यदि चोरी शुद्र, वैश्य या क्षत्रिय करता है तो उन्हें पाप का क्रमशः आठ, सोलह और बत्तीस गुना भागीदार बनना पड़ता है।


ब्राह्मणस्य चतुःषष्टि पूर्णं वापि शतं भवेत्।
द्विगुणा च चतुःषष्टिस्तद्दोषगुण विद्धि सः।
(मनु0, 8-337)
भावार्थ - इसी प्रकार चूंकि ब्राह्मण को चोरी के गुण-दोष का सर्वाधिक ज्ञान होता है, अतः वह चोरी करता है तो उसे पाप का चैसठ गुना भागीदार बनना पड़ता है।
यहां स्वामी जी ने वर्ण को ज्ञान और प्रतिष्ठा का आधार माना है और ब्राह्मण वर्ण को ज्ञान और प्रतिष्ठा में अन्य वर्णों क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र से ऊंचा मानते हुए किसी अपराध में ब्राह्मण के लिए अधिक सजा का प्रावधान किया है। स्वामी दयानंद ने अपनी दंड
विधान की धारणा को मनुस्मृति के उक्त ‘लोकों से सत्य साबित करने का प्रयास अपनी पुस्तक ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में किया है। (6-27)
अगर उक्त ‘लोकों से स्वामी दयानंद की यह धारणा कि दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए, सत्य साबित हो भी जाता है तो अब मुनस्मृति के निम्न ‘लोक भी देखिए, उनसे क्या साबित हो रहा है?


उभावपि तु तावेव ब्राह्मण्या गुप्तया सह।
विलुप्तौ शुद्रवद्दण्ड्यौ दग्ध्व्यौ वा कटाग्निना।।
(मनु0, 8-376)
भावार्थ - यदि रक्षिण ब्राह्मणी से वैश्य या क्षत्रिय शारीरिक संबंध स्थापित करे तो उन्हें शुद्र के समान दंड देते हुए आग में जलाकर मार देना चाहिए।


सहस्रं ब्राह्मणो दण्ड्योगुप्तां विप्रां बलाद् व्रजन्।
शतानि पत्र्च दण्ड्यः स्यादिच्छन्त्या सह सड्.गतः।।
(मनु0, 8-377)
भावार्थ - रक्षित ब्राह्मणी से यदि ब्राह्मण बलात मैथुन करता है तो उस पर दो हजार पैसा दंड लगाना चाहिए। यदि ब्राह्मणी की सहमति से ऐसा करता है तो उसे पांच सौ पैसा दंड देना चाहिए।


मौण्ड्यं प्राणान्तिकोदण्डोब्राह्मणस्य विधीन्यते।
इतरेषां तु वर्णानां दण्डः प्राणान्तिको भवेत्।।
(मनु0, 8-378)
भावार्थ - ब्राह्मण के सिर मुंडवाने का अर्थ ही उसको मृत्युदंड देना है, जबकि अन्य वर्णवालों को मृत्युदंड मिलने पर उनका सचमुच वध किया जाना चाहिए।
न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सर्वपापेष्वपि स्थितम्।
राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनमक्षतम्।।
(मनु0, 8-379)
भावार्थ- भले ही ब्राह्मण ने अनेक महापाप किए हों, किंतु उसका वध करना निषिद्ध है। उसे देश निकाले की सजा दी जा सकती है, ऐसी स्थिति में उसका धन उसे दे देना उचित है।


न ब्राह्मणवधाद्भूयानधर्मा विद्यते भुवि।
तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत्।।
(मनु0, 8-380)
भावार्थ- ब्राह्मण के वध से बढ़कर और कोई पाप नहीं। ब्राह्मण का वध करने की तो राजा को कल्पना भी नहीं करना चाहिए।


शतं ब्राह्मणमाक्रुश्य क्षत्रियो दण्डमर्हति।
वैश्योऽप्यर्धशतं द्वे वा शुद्रस्तुवधमर्हति।।
(मनु0, 8-266)
भावार्थ- ब्राह्मण को यदि क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र द्वारा अपशब्द या कठोर वचन कहा जाए तो उन्हें क्रमशः सौ पैसा, डेड़ सौ पैसा तथा वध का दंड देना चाहिए।


पत्र्चाशद् ब्राह्मणो दण्डः क्षत्रियस्याभिशंसने।
वैश्ये स्यादर्धपत्र्चाशच्छूद्रे द्वादशको दम्ः।।
(मनु0, 8-267)
भावार्थ- यदि ब्राह्मण द्वारा क्षत्रिय, वैश्य या शुद्र को अपशब्द कहा जाए तो उसे क्रमशः पचास, पच्चीस और बारह पैसा आर्थिक दंड देना चाहिए।


एकाजातिद्र्विजातीस्तु वाचा दारूण या क्षिपन्।
जिह्नयाः प्राप्नुयाच्छेदं जघन्यप्रभवो हि सः।।
(मनु0, 8-269)
भावार्थ - शुद्र द्वारा द्विजातियों को अपशब्द कहा जाए तो उसकी जिह्ना काट लेनी चाहिए, ऐसे अधम के लिए यही दंड उचित है।


नामजातिग्रहं त्वेषामभिद्रोहेण कुर्वतः।
निक्षेप्योऽयोमयः ‘ांकुज्र्वलन्नास्ये दशांगुलः ।।
(मनु0, 8-270)
भावार्थ - यदि शुद्र प्रभाव के अहंकार में द्विजातियों के नाम व जाति का उपहास करता है तो आग में तप्त दस उंगली शलाका (लोहे की छड़) उसके मुंह में डाल देनी चाहिए।


धर्मोपदेशं दर्पेण विप्राणामस्य कुर्वतः।
तप्तमासेचयेत्तैलं वक्तृ श्रोत्रे च पार्थिवः ।।
(मनु0, 8-271)
    भावार्थ- यादि शुद्र दर्प में आकर द्विजातियों को धर्मोपदेश देने की धृष्टता करे तो राजा उसके मुंह व कान में खौलता तेल डलवा दे मनुस्मृति के उक्त ‘लोकों में दंड विधान को बदल दिया गया है। स्वामी दयानंद ने जहां ब्राह्मण को किसी अपराध में अन्य वर्णों  से अधिक दंड का अधिकारी माना है, वहीं उक्त ‘लोकों में ब्राह्मण के लिए अन्य वर्णों  से कम दंड का प्रावधान किया गया है। जैसा कि उक्त ‘लोकों से स्पष्ट है कि अगर क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र व्यभिचार करें तो उनको जलाकर मार देना चाहिए, जबकि ब्राह्मण को मात्र सिर मुंडवाने की सजा देनी चाहिए। स्वामी दयानंद के मतानुसार तो ब्राह्मण को जलाकर मारने से भी कोई बड़ी सजा दी जानी चाहिए। मगर यहां ब्राह्मण को सिर मुंडाने जैसी नाममात्र की सजा रखी गई है। जहां ब्राह्मण को अपशब्द कहने पर शुद्र के मुक़ाबले वैश्य को और वैश्य के मुकाबले क्षत्रिय को अधिक दंड देना चाहिए था, वहीं ‘लोक (8-266) में उक्त प्रावधान को उलट दिया गया है, क्षत्रिय और वैश्य को आर्थिक दंड रखा गया है वहीं शुद्र के लिए मृत्यु दंड की बात कही गई है। ‘लोक (8-269, 270, 271) में शुद्र  द्वारा द्विजातियों को मात्र अपशब्द कहने पर अमानवीय सजा का प्रावधान किया गया है। क्या सजा का यह प्रावधान बुद्धिसम्मत और न्यायसंगत है? जिस अपराध में ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक सजा होनी चाहिए थी वहीं ‘लोक (8-267) में ब्राह्मण को अन्य वर्णों से कम सजा का प्रावधान किया गया है। अब कहां गया स्वामी जी का ज्ञान और प्रतिष्ठा पर आधारित दंड विधान? क्या स्वामी जी ने पूरी मनुस्मृति नहीं पढ़ी थी?


अब क्या स्वामी दयानंद अथवा मनुस्मृति द्वारा प्रतिपादित दंड विधान की  धारणा न्यायसंगत और व्यावहारिक लगती है ? क्या कोई शासन व्यवस्था उक्त दंड विधान को मान्य करार दे सकती है? क्या उक्त विधान हास्यास्पद और अक्ल के ख़िलाफ़ नहीं है?

मांस भक्षण : आपत्ति और प्रतिक्रिया

पुस्तक में मांसाहार संबंधी विषय पर व्यापक आपत्तियां और प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। लिखित रूप में मुझे किसी आलोचक का कोई पत्र प्राप्त नहीं हुआ है। सभी आपत्तियां मौखिक रूप से बातचीत के दौरान और फोन पर की गई हैं। सभी आलोचकों ने एक ही बात कही है कि हिंदू शास्त्रों में कहीं भी जीव हत्या और मांस भक्षण का उल्लेख नहीं है। जीव हत्या और मांस भक्षण क्रूरता और जघन्य पाप है।
जिन लोगों ने हिंदू धर्म ग्रंथों का गंभीरता और गहनता के साथ अध्ययन किया है उन्हें यह बात आसानी से समझ में आ रही होगी कि मांस भक्षण के उक्त तथाकथित आलोचकों ने हिंदू शास्त्रों को पढ़ा तो क्या छुआ तक नहीं है। मांसाहार के अनेक हिंदू आलोचक मुझे ऐसे भी मिले हैं जो मांस भक्षण करते हैं, परंतु फिर भी मांसाहार का प्रबल विरोध करते हैं। इस तरह की मानसिकता के लोगों को क्या कहा जाएगा ?
उक्त विषय पर अनेक पढ़े-लिखे लोगों से मेरा विचार-विमर्श और चर्चा हुई है और होती रहती है, उनको मैंने हिंदू धर्म ग्रंथों वेद, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि में उल्लिखित मांस भक्षण से संबंधित मंत्रों और ‘लोकों को दिखाया तो उनमें से किसी का जवाब था कि किताबों में अर्थ का अनर्थ किया गया है। किसी ने मंत्र पढ़कर किताब को अलटा-पलटा और जवाब दिया कि हमारी इन किताबों में मुसलमानों ने गड़बड़ की है।
जिन लोगों से मेरी बातचीत हुई वे सभी उच्च शिक्षा प्राप्त (Well Educated) थे, मगर उनमें मुझे न कोई तर्क शक्ति (Reasoning Power) नज़र आई और न ही उनमें कोई विश्लेषण शक्ति (Analysis Power) मुझे दिखाई दी। जो लोग मांस खाते हैं और मांस भक्षण का विरोध करते हैं उनमें तर्क शक्ति (Logical Power) भला हो भी कैसे सकती है?

एक वाकिये का उल्लेख करना यहां प्रासंगिक (Relevant) होगा। सन् 2006 के उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव में मेरी डयूटी पोलिंग अधिकारी के रूप में लगी। जिस मतदान केन्द्र पर मेरी डयूटी थी उस केन्द्र पर दो पोलिंग पार्टियों में कुल मिलाकर 18 मतदान कर्मी थे। सभी कर्मी हिंदू थे। मतदान से पहले दिन हम लोग मतदान केन्द्र पर पहुंच गए। दोनों मतदान स्थल पर हिंदू मुस्लिम दोनों के मतदाताओं की संख्या लगभग आधी-आधी थी। शाम को सभी लोगों का खाना दोनों ही तरफ से लाया गया। किसी मतदान अधिकारी ने मुसलमान अभिकर्ता द्वारा खाने के विषय में पूछने पर उसे इशारा कर दिया था कि खाने में नानवेज बनवाए। एक तरफ से दाल-चावल, रोटी और दूसरी तरफ से नानवेज बनवाकर लाया गया। 18 लोगों में एक व्यक्ति ऐसा था जिसने दाल रोटी खायी। 17 लोगों ने दाल को हाथ तक नहीं लगाया। क्या उक्त वाकिये से यह साबित नहीं होता कि हम अंदर से कुछ और हैं और बाहर से कुछ और। यह भी मुमकिन है कि उक्त सभी लोग अपने समाज में शाकाहार के समर्थक और प्रचारक हों। क्या यही है हम और यही है हमारा चरित्र और आचरण ?

आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं। दुनिया में कहां क्या हो रहा है यह भी हमारी आंखों के सामने है। आज किसे मालूम नहीं है कि आर्यों के इस देश भारत में हजारों मांस प्रसंस्करण ईकाइयां (डमंज च्तवबमेेपदह न्दपजे) काम कर रही हैं। किसे मालूम नहीं कि स्वामी दयानंद और स्वामी रामदेव के इस देश भारत में प्रतिदिन अरबों रुपयों का डिब्बा बंद मांस निर्यात होता है। किसे मालूम नहीं है कि शाकाहार वादियों (म्गजतमउपेजे टमहमजंतपंदपेउ) के इस देश भारत में मछली पालन और मुर्गी पालन को बढ़ावा देने के लिए हमारी सरकार अनुदान (ैनइेपकल) दे रही है। अगर मांस का उक्त कारोबार क्रूरता और पाप की पराकाष्ठा है तो हमारे धर्मगुरु क्यों चुप हैं?
कल तक हिंदू राष्ट्र कहे जाने वाले पड़ोसी देश नेपाल के विश्व प्रसिद्ध गढ़ी माई मंदिर में प्रतिवर्ष करीब 200000 (दो लाख) पशुओं की बलि दी जाती है। क्या यह वही नेपाल नहीं है जहां अहिंसा के संदेशवाहक गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था ?

नीचे हिंदू धर्मग्रंथों से मांस भक्षण संबंधी कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं। मांसाहार के आलोचक और विरोधी इन्हें गंभीरता से पढ़े। मुझे उम्मीद है कि प्रबुद्ध आलोचक इन उदाहरणों को पढ़कर अपनी आपत्तियों पर पुनर्विचार करेंगे और अवश्य किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।


ऋग्वेद के निम्न मंत्र को देखिए-
उक्ष्णो   हि    मे   पंचदश   साकं   पचन्ति   विंशमित्।
उताहमद्मि पवि इदुभा कुक्षी पृणन्ति में विश्वस्मादिन्द्र उत्तरः।।
(ऋग्वेद, 10-86-14)


भावार्थ - मेरे लिए इंद्राणी द्वारा प्रेरित यज्ञकर्ता लोग 15-20 बैल मार कर पकाते हैं, जिन्हें खाकर मैं मोटा होता हूँ। वे मेरी कुक्षियों को भी सोम रस से भरते हैं।
यजुर्वेद के एक मंत्र में पुरुषमेध का प्राचीन इतिहास इस तरह प्रस्तुत किया गया है।
देवा यद्यज्ञं तन्वानाऽ अवध्नन् पुरुषं पशुम।
(यजुर्वेद, 31-15)


भावार्थ - इंद्र आदि देवताओं ने पुरुषमेध किया और पुरुष नामक पशु का वध किया।
अथर्ववेद में स्पष्ट ‘ाब्दों में पांच प्राणियों को देवता के लिए बलि दिए जाने योग्य कहा है -
तवेमे पंच पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावयः।
(अथर्ववेद, 11-29-2)
भावार्थ - हे पशुपति देवता, तेरे लिए गाय, घोड़ा, पुरुष, बकरी और भेड़ ये पांच पशु नियत हैं।


मनुस्मृति जो स्वामी दयानंद के चिंतन का मुख्य आधार रही है उसमें न केवल मांस भक्षण का उल्लेख और संकेत है, बल्कि मांस भक्षण की स्पष्ट अनुमति दी गई है। मनुस्मृति में मांस भक्षण की अनुमति के साथ मांस भक्षण की उपयोगिता और महत्व भी बताया गया है -
यज्ञे वधोऽवधः।
(मनु0, 5-39)
भावार्थ - यज्ञ में किया गया वध, वध नहीं होता।


या वेदविहिता हिंसा नियतास्ंिमश्चराचरे।
अहिंसामेव तां विद्याद्वेदाद्धर्मो हि निर्बभौ।।
(मनु0, 5-44)
भावार्थ - जिस हिंसा का वेदों में विधान किया गया है, वह हिंसा न होकर अहिंसा ही है, क्योंकि हिंसा, अहिंसा का निर्णय वेद करता है।


एष्वर्थेषु पशून्हिसन्वेदतत्त्वार्थविद्द्विजः।
आत्मानं च पशुं चैव गमयत्युत्तमां गतिम्।।
(मनु0, 5-42)
भावार्थ - वेद-कर्मज्ञ द्विज यज्ञ-कर्म में पशु वध करता है तो वह पशु-सहित उत्तम गति को प्राप्त करता है।

उष्ट्रवर्जिता एकतो दतो गोऽव्यजमृगा भक्ष्याः।
(मनु0, 5-18)
भावार्थ- ऊंट को छोड़कर एक ओर दांतवालों में गाय, भेड़, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात् खाने योग्य हैं।

‘वभिर्हतस्य यन्मांसं ‘ाुचि तन्मनुरब्रवीत।
क्रव्याöिश्च हतस्यान्यैश्चाण्डालाद्यैश्च दस्युभिः।।
(मनु0, 5-134)
भावार्थ- मनु के अनुसार, कुत्तों द्वारा पकड़े गए मृग, ‘ोरों द्वारा खाया गया कच्चा मांस, चांडाल व चोरों द्वारा मारे गए मृग का मांस शुद्ध है।

दौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन्मासान् हारिणेन तु।
औरभ्रेणाथ चतुरः ‘ााकुनेनाथ पत्र्च वै।।
(मनु0, 3-269)
भावार्थ- विधि-विधान के द्वारा प्रदत्त मछली के मांस से मानव-पितर दो महीने तक, मृग के मांस से तीन महीने तक, भेड़ के मांस से चार महीने तक, पक्षियों के मांस से पांच महीने तक तृप्त संतुष्ट होते हैं।
“ाण्मासांश्छागमांसेन पार्षतेन च सप्त वै।
अष्टावैणेस्यमांसेन रौरवेण नवैव तु।।
(मनु0, 3-270)
भावार्थ- बकरे, चित्रमृग, भेड़ व रूरूमृग के मांस से क्रमशः सात, आठ और नौ महीने तक मानव-पितर तृप्त-संतुष्ट रहते हैं।

दशामासांस्तु तृप्यन्ति वराहमहिषामिषैः।
‘ाशकूर्मयोस्तु मांसेन मासानेकादशैव तु।।
(मनु0, 3-271)
भावार्थ- सूअर और भैंस के मांस से मानव-पितर दस महीने तक संतृप्त रहते हैं और खरगोश व कछुए के मांस से ग्यारह महीने तक।


महाभारत में आया है -
गव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्येत।
(अनुशासन पर्व, 88-5)
भावार्थ- गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है।
महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशस्वी बना। महाभारत, वन पर्व में आता है -
राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्य वै द्विज,
द्वे सहस्रे तु वध्येते पशूनामन्वहं तदा,
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्रे गवां तथा,
समांसं ददतो ह्यन्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः,
अतुला कीर्तिरभवन्नृपस्य द्विजसत्तम,
(वनपर्व 208-8,10)
भावार्थ- राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे। प्रतिदिन दो हजार गाय काटी जाती थी। मांस सहित अन्न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई।


उक्त से कमअक़्ल व्यक्ति भी समझ सकता है कि महाभारत काल में गोवध और गोमांस भक्षण सराहनीय कार्य था न कि निंदनीय।
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में भी मांस भक्षण का स्पष्ट उल्लेख है। निम्न ‘लोक देखिए-
जब भरत सेना सहित भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाते हैं तो भरद्वाज मुनि के आश्रम में भरत का सेना सहित मृग, मोर और मुर्गों के मांस से स्वागत सत्कार होता है।
वाप्यो मैरेयपूर्णाश्च मृष्टमांसचयैर्वृताः।
प्रतप्तपिठरैश्चापि मार्गमायूरकौक्कुटैः।।
(अयोध्या कांड, 91-70)
भावार्थ - भरत की सेना में आये हुए निषाद आदि निम्न वर्गों के लोगों की तृप्ति के लिए वहां मधु से भरी हुई बावड़ियां प्रकट हो गई थी तथा उनके तटोंपर तपे हुए पिठर (कुण्ड) में पकाये हुए मृग, मोर और मुर्गाें के स्वच्छ मांस भी ढेर के ढेर रख दिये गये थे। जब रावण सीता के हरण की नीयत से साधु का वेष बनाकर वन में सीता के पास जाता है तो सीता अपना परिचय देते हुए रावण से राम के विषय में बतलाती है-
रुरून् गोधान् वराहांश्च हत्वाऽ ऽदायामिषं बहु।।
स त्वं नाम च गोत्रं च कुलमाचक्ष्व तत्त्वतः।।
एकश्च दण्डकारण्ये किमर्थ चरसि द्विज।।
(अरण्यकांड, 47-23, 24)
भावार्थ- ‘रुरू, गोह और जंगली सूअर आदि हिंसक पशुओं का वध करके तपस्वी जनों के उपभोग में आने योग्य बहुत सा फल-मूल लेकर वे अभी आयेंगे। (उस समय आपका विशेष सत्कार होगा)। ब्रहान्! अब आप भी अपने नाम गोत्र और कुल का ठीक-ठीक परिचय दीजिए। आप अकेले इस दण्डकारण्य में किस लिये विचरते हैं ?
श्री राम जब गंगा पार करके समृद्धिशाली वत्स देश (प्रयाग) में पहुंचे तो वहां लक्ष्मण सहित दोनों भाइयों ने चार महामृगों का शिकार किया।

तौ तत्र हत्वा चतुरो महामृगान्
वराहमृश्यं पृषतं महारुरुम्।
आदाय मेध्यं त्वरितं बुभुक्षितौ
वासाय काले ययतुर्वनस्पतिम्।।
(अयोध्याकांड, 52-102)
भावार्थ- वहां उन  दोनों भाइयों ने मृगया विनोद के लिए वराह, ऋश्य, पृषत् और महारुरु- इन चार महामृगों पर बाणों का प्रहार किया। तत्पश्चात् जब उन्हें भूख लगी, तब पवित्र कंद-मूल आदि लेकर सायंकाल के समय ठहरने के लिए (सीताजी के साथ) एक वृक्ष के नीचे चले गये।


स्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस का भी एक दोहा देखिए-
बंधु  सखा  संग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई।।
पावन मृग मारहिं जियं जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी।
(बालकांड, 204-1)
भावार्थ- श्रीराम चन्द्र जी भाइयों और इष्ट-मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं। मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन लाकर राजा (दशरथ जी) को दिखलाते हैं।


श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में राजा दशरथ द्वारा किए गए अश्वमेध यज्ञ का वर्णन मिलता है। बाल कांड में आता है कि राजा दशरथ के कोई संतान नहीं थी। पुत्रोत्पत्ति की लालसा से राजा दशरथ ने सरयू नदी के उत्तर तट पर यज्ञ भूमि का निर्माण कर शास्त्रोक्त रीति से यज्ञ किया।
देखिए अयोध्या राजा दशरथ द्वारा किया गया अश्व-
मेध नामक महायज्ञ किस प्रकार संपन्न हुआ।
अथ संवत्सरे पूर्णे तस्मिन् प्राप्ते तुरंगमे ।
सरय्वाश्रचोत्तरे तीरे राज्ञो यज्ञोडभ्यवर्तत ।।
ऋष्यश्रृंग पुरस्कृत्य कर्म चक्रुद्र्विजर्षभाः ।
अश्वमेधे महायज्ञे राज्ञोडस्य सुमहात्मनः ।।
नियुक्तास्तत्रः पशवस्तत्तदुद्दिश्य दैवतम्।
उरगाः पक्षिणश्चैव यथाशास्त्रं प्रचोदिताः।।
‘ाामित्रे तृ हयस्तत्र तथा जलचराश्च ये।
ऋषिभिः सर्वमेवैतन्नियुक्तं ‘ाास्त्रतस्तदा।।
पशुनां त्रिशतं तत्र यूपेषु नियतं तदा ।
अश्वरत्नोत्तमं तत्र राज्ञो दशरथस्य ह।।
कौसल्या तं हयं तत्र परिचय समन्ततः ।
कृपाणैर्विससारैनं त्रिभिः परमया मुदा ।।
पतत्त्रिणा तदा सार्धे सुस्थितेन च चेतसा ।
अवसद् रजनीमेकां कौसल्या धर्मकाम्यया।।
होताध्वर्युस्तथोदाता हस्तेन समयोजयन ।
महिष्या परिवृत्त्याथ वावातामपरां तथा ।।
पतत्त्रिणस्तस्य वपामुद्धृत्य नियतेन्द्रियः ।
ऋत्विक्परमसम्पन्नः श्रपयामास ‘ाास्त्रतः।।
धूमगन्धं वपायास्तु जिघ्रति स्म नराधिपः।
यथाकालं यथान्यायं निर्णुदन् पापमात्मनः।।
हयस्य यानि चांगनि तानि सर्वाणि ब्राह्मणाः
अग्नौ प्रास्यन्ति विधिवत् समस्ताः“ाोडशत्र्विजः

इधर वर्ष पूरा होने पर यज्ञ सम्बन्धी अश्व भूमण्डल में भ्रमण करके लौट आया। फिर सरयू नदी के उत्तर तट पर राजा का यज्ञ आरम्भ हुआ।
महामनस्वी राजा दशरथ के उस अश्वमेध नामक महायज्ञ में ़ऋष्य श्रृंग को आगे करके श्रेष्ठ ब्राह्मण यज्ञ सम्बन्धी कार्य करने लगे।
वहाँ पूर्वोक्त यूपों में शास्त्र विहित पशु, सर्प और पक्षी विभिन्न देवताओं के उद्देश्य से बाँधे गये थे ।
‘ाामित्र कर्म में यज्ञिय अश्व तथा कूर्म आदि जलचर जन्तु जो वहाँ लाये गये थे, ऋषियों ने उन सबको शास्त्र विधि के अनुसार पूर्वोक्त यूपों में बाँध दिया।
उस समय उन यूपों में तीन सौ पशु बँधे हुए थे तथा राजा दशरथ का वह उत्तम अश्वरत्न भी वहीं बाँधा गया था।
रानी कौसल्या ने वहाँ प्रोक्षण आदि के द्वारा सब ओर से उस अश्वका संस्कार करके बड़ी प्रसन्नता के साथ तीन तलवारों से उसका स्पर्श किया।
तद्नन्तर कौसल्या देवी ने सुस्थिर चित्त से धर्मपालन की इच्छा रखकर उस अश्व के निकट एक रात निवास किया।
तत्पश्चात् होता, अध्वर्यु और उदªाता ने राजा की (क्षत्रिय जातीय) महिषी ‘कौसल्या’, (वैश्य जातीय स्त्री) ‘वावाता’ तथा (शूद्र जातीय स्त्री) ‘परिवृत्ति’- इन सबके हाथ से उस अश्व का स्पर्श कराया।
इसके बाद परम चतुर जितेन्द्रिय ऋत्विक् ने विधि पूर्वक अश्वकन्द के गूदे को निकालकर शास्त्रोक्त रीति से पकाया।
तत्पश्चात् उस गूदे की आहुति दी गयी। राजा दशरथ ने अपने पाप को दूर करनेे के लिये ठीक समय पर आकर विधि पूर्वक उसके धुएँ की गन्ध को सूँघा।
उस अश्वमेध यज्ञ के अंग्भूत जो-जो हवनीय पदार्थ थे, उन सबको लेकर समस्त सोलह ऋृत्विज ब्राह्मण अग्नि में विधिवत् आहुति देने लगे।
   (बालकांड, 14-1,2,30-38)


ऊपर जो लिखा गया है वह तो अति संक्षेप में है, वरना हिंदू धर्मग्रंथों में इस विषय पर अभी और बहुत कुछ है। आलेख अधिक लम्बा न हो इसलिए कुछ ग्रंथों जैसे उपनिषद् और चरक संहिता आदि को छोड़ दिया गया है। जो लोग कहते हैं कि हिंदू धर्म ग्रंथों में ऊपर जो लिखा गया है वह तो अति संक्षेप में है, वरना हिंदू धर्मग्रंथों में इस विषय पर अभी और बहुत कुछ है। आलेख अधिक लम्बा न हो इसलिए कुछ ग्रंथों जैसे उपनिषद् और चरक संहिता आदि को छोड़ दिया गया है। जो लोग कहते हैं कि हिंदू धर्म ग्रंथों में पशुबलि, जीव हत्या और मांस भक्षण का कहीं कोई उल्लेख नहीं है वे लोग अपने धर्मग्रंथों से क़तई अनभिज्ञ हैं। इतिहास इस बात का साक्षी है कि आर्य मांस प्रेमी थे, यज्ञों में पशु बलि को वे बहुत अधिक पुण्य का कार्य समझते थे। अतः यह सत्य है कि मांस भक्षण विज्ञान सम्मत तो है ही, धर्मशास्त्र सम्मत भी है।


अगर हम अंधविश्वास और रुढ़िवादिता को छोड़कर उक्त वैज्ञानिक सत्य को स्वीकार कर लें तो ऐसा करने से हमारी कौन सी नाक कट जाएगी? एक वैज्ञानिक सत्य को अपनाने से हम कौन सा असभ्य और अनैतिक साबित हो जाएंगे? एक वैज्ञानिक सत्य को मानने से हम कौन सा कमजोर और बुद्धिहीन समझे जाएंगे?

यह कैसा ब्रह्मचर्य था ?

‘सत्यार्थ प्रकाश’ के निर्माता आचार्य स्वामी दयानंद सरस्वती बाल ब्रह्मचारी और संन्यासी थे। स्वामी जी ने ब्रह्मचर्याश्रम से ही सीधे संन्यास ग्रहण किया था। स्वामी जी ने लिखा है-
ब्रह्माचय्र्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्।।
-(शत. कां. 14)

मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्य्यश्रम को समाप्त करके गृहस्थ होकर वानप्रस्थ और वानप्रस्थ होकर संन्यासी होवें अर्थात् यह अनुक्रम से होकर आश्रम का विधान है। (5-1)
किसी ने स्वामी जी से सवाल किया -
प्रश्न - गृहाश्रम सब से छोटा होता है या बड़ा ?
उत्तर- अपने-अपने कत्र्तव्य कर्मों में सब बड़े है, परन्तु -
यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् ।
तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् ।।1।।
-(मनु,06-90)

यथा वायुं समाश्रित्य वत्र्तन्ते सर्वजन्तवः।
तथा गृहस्थामाश्रित वत्र्तन्ते सर्व आश्रमाः।।2।।
यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनात्रेन चान्वहम्।
गृहस्थेनैव धाय्र्यन्ते तस्माज्येष्ठाश्रमो गृही।।3।।
स संधाय्र्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।
सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः।।4।।
-(मनु,03-77, 78, 79)

जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं। बिना इस आश्रम के किसी आश्रम को कोई  व्यवहार सिद्ध नहीं होता।।1।। जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमों को दान और अत्राादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण करता है इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है।।2।। इसलिए जो मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता। हो वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे।।3।। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरू और निर्बल पुरूषों से धारण करने अयोग्य है उसको अच्छे प्रकार धारण करे।।4।।


इसलिए जितना कुछ व्यवहार संसार में है उसका आधार गृहाश्रम है। जो यह गृहाश्रम न होता तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहाँ से हो सकते ? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है वह निन्दनीय है। और जो प्रंशसा करता है वही प्रशंसनीय है, परन्तु तभी गृहाश्रम में सुख होता है जब स्त्री और पुरूष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान, पुरूषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिए गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है। (4-152, 153)


स्वामी जी से उक्त से संबंधित एक सवाल यह भी किया-
प्रश्न- गृहाश्रम और वानप्रस्थाश्रम न करके संन्यासाश्रम करे उसको पाप होता है या नहीं?
उत्तर - होता है और नहीं भी होता।


प्रश्न- यह दो प्रकार की बात क्यों कहते हो?
उत्तर- दो प्रकार की नहीं, क्योंकि जो बाल्यावस्था में विरक्त होकर विषयों में फंसे वह महापापी और जो न फंसे वह महापुण्यात्मा सत्पुरूष है। आगे लिखा है- जो पूर्ण विद्वान, जितेन्द्रिय, विषय भोग की कामना से रहित, परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरूष हो, वह ब्रह्मचर्याश्रम ही से संन्यास लेवे। (5-7,8,9)
कहने का मतलब स्पष्ट है कि स्वामी जी पूर्ण विद्वान, जितेन्द्रिय विषयभोग की कामना से रहित, महापुण्यात्मा सत्पुरूष थे, क्योंकि उन्होंने ब्रह्मचर्याश्रम से ही सीधे संन्यास ग्रहण किया था।

एक ब्रह्मचारी और संयासी के जीवन का शास्त्रीय आदर्श है कि उसे काम, क्रोध, अहंकार, मोह, भय, शोक, ईष्र्या, निंदा, कपट, कुटिलता, अश्लीलता आदि अवगुणों से सदैव दूर रहना चाहिए। मगर ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में अहंकार, निंदा, अश्लीलता के अलावा कुछ और दिखाई नहीं पड़ता। स्वामी दयानंद ने अपने महान ग्रंथ में जैन तीर्थंकर स्वामी महावीर, महात्मा गौतम बुद्ध, ईसा मसीह, हज़रत मुहम्मद, गुरू नानक सिंह आदि किसी भी महापुरूष और उनसे संबंधित संप्रदाय को नहीं बख्शा, जिसकी निंदा और अमर्यादित आलोचना न की हो। स्वामी जी ने स्वयं के अलावा किसी अन्य को विद्वान और पुण्यात्मा नहीं समझा।


स्वामी दयानंद किस व्यक्ति को अपना आदर्श मानते थे, उन्होंने कहीं उसके नाम का उल्लेख तक नहीं किया है। संपादक महोदय पं0 भगवद्दत्त लिखते हैं, ‘‘ऋषि दयानन्द सरस्वती प्राचीन ऋषि-मुनियों के उत्कृष्टतम प्रतिनिधि थे। उन्होंने भारत को एक धक्का दिया था, सोई हुई आर्य जाति को पकड़ कर हिलोरे दे-देकर जगाया था। इस काम में ऐसा समर्थ पुरूष गत पाँच सहस्र वर्ष में इस भारत भूमि पर नहीं जन्मा।’’ (संपादक की भूमिका)
आधुनिक भारत के उक्त निर्माता आचार्य ने विभिन्न मत-मतान्तरों और उनके प्रवर्तकों के विषय में क्या टीका-टिप्पणी की है ज़रा उस पर भी एक नज़र डाल लीजिए-


........... इससे यह सिद्ध होता है कि सबसे वैर, विरोध, निन्दा, ईष्र्या आदि दुष्ट कर्मरूप सागर में डुबाने वाला जैनमार्ग है। जैसे जैनी लोग सबके निन्दक हैं वैसे कोई भी दूसरा मत वाला महानिन्दक और अधर्मी न होगा। क्या एक ओर से सबकी निन्दा और अपनी अतिप्रशंसा करना शठ मनुष्यों की बातें नहीं हैं?विवेकी लोग तो चाहे किसी के मत के हों उनमें अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहते हैं। (12-105)
........... भला! जो कुछ भी ईसा में विद्या होती तो ऐसी अटाटूट, जंगलीपन की बात क्यों कह देता?तथापि ‘यत्र देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते।’ जिस देश में कोई भी वृक्ष न हो तो उस देश में एरण्ड का वृक्ष ही सबसे बड़ा और अच्छा गिना जाता है वैसे महाजंगली देश में ईसा का भी होना ठीक था, पर आजकल ईसा की क्या गणना हो सकती है। (13-77)


........... अब सुनिए! ईसाइयों के स्वर्ग में विवाह भी होते हैं, क्योंकि ईसा का विवाह ईश्वर ने वहीं किया। पूछना चाहिए कि उसके श्वसुर, सासू, शालादि कौन थे और लड़के-बाले कितने हुए?और वीर्य के नाश होने से बल, बुद्धि, पराक्रम, आयु आदि के भी न्यून होने से अब तक ईसा ने वहाँ शरीर त्याग किया होगा। (13-145)
प्रहलाद को उसका पिता पढ़ने के लिए भेजता था; क्या बुरा काम किया था? और वह प्रहलाद ऐसा मूर्ख पढ़ना छोड़ वैरागी होना चाहता था। जो जलते हुए खम्भे से कीड़ी चढ़ने लगी और प्रहलाद स्पर्श करने से न जला इस बात को जो सच्ची माने उसको भी खम्भे के साथ लगा देना चाहिए। जो यह न जले तो जानो वह भी न जला होगा और नृसिंह भी क्यों न जला? (11-182)


........... वाह कुरान का खुदा और पैग़म्बर तथा कुरान को! जिसको दूसरे का मतलब नष्ट कर अपना मतलब सिद्ध करना इष्ट हो ऐसी लीला अवश्य रचता है। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि मुहम्मद साहेब बड़े विषयी थे। यदि न होते तो (लेपालक) बेटे की स्त्री को जो पुत्र की स्त्री थी; अपनी स्त्री क्यों कर लेते? और फिर ऐसी बातें करने वाले का खुदा भी पक्षपाती बना और अन्याय को न्याय ठहराया। मनुष्यों में जो जंगली भी होगा वह भी बेटे की स्त्री को छोड़ता है और यह कितनी बड़ी अन्याय की बात है कि नबी को विषयासक्ति की लीला करने में कुछ भी अटकाव नहीं होना! यदि नबी किसी का बाप न था तो जैद (लेपालक) बेटा किसका था?और क्यों लिखा? यह उसी मतलब की बात है कि जिस बेटे की स्त्री को भी घर में डालने से पैग़म्बर साहेब न बचे, अन्य से क्योंकर बचे होंगे?ऐसी चतुराई से भी बुरी बात में निन्दा होना कभी नहीं छूट सकता। क्या जो कोई पराई स्त्री भी नबी से प्रसन्न होकर विवाह करना चाहे तो भी हलाल है?और यह महा अधर्म की बात है कि नबी जिस स्त्री को चाहे छोड़ देवे और मुहम्मद साहेब की स्त्री लोग यदि पैग़म्बर अपराधी भी हो तो कभी न छोड़ सकें! जैसे पैग़म्बर के घरों में अन्य कोई व्यभिचार दृष्टि से प्रवेश न करें तो वैसे पैग़म्बर साहेब भी किसी के घर में प्रवेश न करें। क्या नबी जिस किसी के घर में चाहें निश्शंक प्रवेश करें और माननीय भी रहें? भला! कौन ऐसा हृदय का अन्धा है कि जो इस कुरान को ईश्वरकृत और मुहम्मद साहेब को पैग़म्बर और कुरानोक्त ईश्वर को परमेश्वर मान सके। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे युक्तिशून्य धर्मविरुद्ध बातों से युक्त इस मत को अरब देशनिवासी आदि मनुष्यों ने मान लिया! (14-129)


............. नानक जी का आशय तो अच्छा था, परन्तु विद्या कुछ भी नहीं थी। हाँ! भाषा उस देश की जोकि ग्रामों की है उसे जानते थे। वेदादि शास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। जो जानते होते तो ‘निर्भय’ शब्द को ‘निर्भो’ क्यों लिखते? और इसका दृष्टान्त उनका बनाया संस्कृती स्तोत्र है। चाहते थे मैं संस्कृत में भी पग अड़ाऊँ, परन्तु बिना पढ़े संस्कृत कैसे आ सकती है? हाँ, उन ग्रामीणों के सामने कि जिन्होंने संस्कृत कभी सुना भी नहीं था ‘संस्कृती’ बनाकर संस्कृत के भी पण्डित बन गए होंगे। यह बात अपने मान-प्रतिष्ठा और अपनी प्रख्याति की इच्छा के बिना कभी न करते। उनको अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा अवश्य थी। नहीं तो जैसी भाषा जानते थे कहते रहते और यह भी कह देते कि मैं संस्कृत नहीं पढ़ा। जब कुछ अभिमान था तो मान-प्रतिष्ठा के लिए कुछ दम्भ भी किया होगा, इसीलिए उनके ग्रन्थ में जहाँ-तहाँ वेदों की निन्दा और स्तुति भी है, क्योंकि जो ऐसा न करते तो उनसे भी कोई वेद का अर्थ पूछता जब न आता तब प्रतिष्ठा नष्ट होती, इसीलिए पहले ही अपने शिष्यों के सामने कहीं-कहीं वेदों के विरुद्ध बोलते थे और कहीं-कहीं वेद के लिए अच्छा भी कहा है, क्योंकि जो कहीं अच्छा न कहते तो लोग उनको नास्तिक बताते। (11-275)
अच्छे व्यक्ति की पहचान की पहली कसौटी उसकी भाषा होती है। क्या उक्त प्रकार की भाषा शैली एक पूर्ण विद्वान और संन्यासी को शोभा देती है? क्या उक्त विषय वस्तु में एक ब्रह्मचारी ने शास्त्रीय आदर्शों का उल्लंघन नहीं किया है?
स्वामी जी लिखते हैं कि ‘‘यदि किसी मत का विद्वान किसी अन्य मत की निंदा करता है तो निंदा करने वाले विद्वान की अच्छी बातें भी दोषयुक्त हो जाती हैं।’’ (12-95)
क्या यह बात स्वामी दयानंद पर लागू नहीं होती?


स्वामी जी लिखते है कि ‘‘जो अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा और अपने ही धर्म को बड़ा कहना और दूसरों की निंदा करना यह मूर्खता की बात है, क्योंकि प्रशंसा उसी की ठीक है जिसकी दूसरे विद्वान करें। अपने मुख से अपनी प्रशंसा तो चोर भी करते हैं।’’ (12-99)
क्या यह बात स्वामी दयानंद पर लागू नहीं होती?

स्वामी जी लिखते है कि, ‘‘बहुत मनुष्य ऐसे हैं जिनको अपने दोष तो नहीं दीखते, किन्तु दूसरों के दोष देखने में अति उद्युक्त रहते हैं। यह न्याय की बात नहीं, क्योंकि प्रथम अपने दोष देख, निकाल के पश्चात दूसरे के दोषों में दृष्टि देके निकालें। (12-8)
क्या यह बात स्वामी दयानंद पर लागू नहीं होती?


स्वामी जी लिखते हैं  कि, ‘‘जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है। इसलिए वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता।’’ (भूमिका)
क्या यह बात स्वामी जी पर लागू नहीं होती?


स्वामी जी लिखते हैं कि, ‘‘बहुत से हठी, दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं, विशेषकर मत वाले लोग। क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अन्धकार में फंस के नष्ट हो जाती है।’’ (भूमिका)
क्या यह बात स्वामी जी पर लागू नहीं होती?


स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा है कि एक ब्रह्मचारी के लिए अष्ट प्रकार के मैथुन जैसे स्त्री दर्शन, स्त्री चर्चा और स्त्री संग अदि सब निषिद्ध है, मगर स्वामी जी ने अपनी पुस्तक में न केवल स्त्री चर्या और सेक्स चर्चा की है, बल्कि एक नव विवाहित जोड़े को गर्भाधान किस प्रकार करना चाहिए ? इस विधि का खुला चित्रण किया है।

विषय वस्तु पर एक नज़र डालिए -      
............. जब वीर्य का गर्भाशय में गिरने का समय हो उस समय स्त्री और पुरूष दोनों स्थिर और नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा शरीर और अत्यन्त प्रसन्नचित्त रहें, डिगें नहीं। पुरूष अपने ‘ारीर को ढीला छोड़े और स्त्री वीर्य प्राप्ति-समय अपान वायु को ऊपर खींचे, योनि को ऊपर संकोच कर वीर्य का ऊपर आकर्षण करके गर्भाशय में स्थिर करे। पश्चात् दोनों शुद्ध जल से स्नान करें।
गर्भास्थिति होने का परिज्ञान विदुषी स्त्री को तो उसी समय हो जाता है, परन्तु इसका निश्चय एक मास के पश्चात् रजस्वला न होने पर सब को हो जाता है।
जब महीने भर में रजस्वला न होने से गर्भस्थिति का निश्चय हो जाए तब से एक वर्ष पर्यन्त स्त्री-पुरूष का समागम कभी न होना चाहिए, क्योंकि ऐसा होने से सन्तान उत्तम और पुनः दूसरा सन्तान भी वैसा ही होता है। अन्यथा वीर्य व्यर्थ जाता, दोनों की आयु घट जाती और अनेक प्रकार के रोग होते हैं, परन्तु ऊपर से भाषणादि प्रेमयुक्त व्यवहार दोनों को अवश्य रखने चाहिए।
         ................ संतान छह दिन तक माता का दूध पिये और स्त्री भी अपने शरीर के पुष्टि के अर्थ अनेक प्रकार के उत्तम भोजन करे और योनिसंकोचादि भी करे। छठे दिन स्त्री बाहर निकले और सन्तान के दूध पीने के लिए कोई धायी रक्खे। उसको खान-पान अच्छा करावे। वह सन्तान को दूध पिलाया करे और पालन भी करे, परन्तु उसकी माता लड़के पर पूर्ण दृष्टि रक्खे, किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार उसके पालन में न हो। स्त्री दूध बन्ध करने के अर्थ  स्तन के अग्रभाग पर ऐसा लेप करे कि जिससे दूध स्रवित न हो। उसी प्रकार खान-पान का व्यवहार भी यथायोग्य रक्खे।
(4-64, 65, 68)
क्या उक्त को पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि जिस प्रकार एक योग गुरू स्त्री-पुरूषों को अनुलोम-विलोम आदि योग क्रियाओं का अभ्यास करता है ठीक इसी प्रकार स्वामी जी ने नव विवाहित जोड़ों को गर्भाधान की विधि और आगे के क्रिया कलापों और संबंधों को इतने विश्वास, साहस और ज्ञान के साथ समझाया है मानो उन्हें इस कठिन तकनीकी (ज्मबीदपबंस) कार्यों का वर्षों का तजुर्बा हो और वे इस कार्य के विशेषज्ञ (ैचमबपंसपेज) हों। गर्भाधान की प्रक्रिया समझाने के बाद नोट में यह भी लिखा है कि, ‘‘यह बात रहस्य की है इसलिए इतने ही से समग्र बातें समझ लेनी चाहिए, विशेष लिखना उचित नहीं है।’’


कैसी विचित्र विडंबना है कि एक ऐसा व्यक्ति जो किसी विषय का अ ब स न जानता हो और वह विषय उसके लिए निषिद्ध और निंदनीय भी हो, फिर भी वह व्यक्ति उस विषय का ज्ञाता और प्रवक्ता हो। इससे अधिक धूर्तता, निर्लज्जता और दुस्साहस की बात यह देखिए कि वह व्यक्ति यह दावा भी करता है कि मैं इससे अधिक भी जानता हूँ, जिसका लिखना यहाँ उचित नहीं है। भला सेक्स संबंधी ऐसा कौन सा रहस्य है जिसे एक ब्रह्मचारी तो जान सकता है, मगर एक विवाहित नहीं जान सकता? क्या यहां प्रश्न चिंह नहीं बनता ?
एक बात यह भी देखिए कि ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लगभग 40 बार वीर्य शब्द का प्रयोग हुआ है और लिखा है कि यह अमूल्य है। स्वामी जी के जीवन चरित्र को पढ़ने पर पता चलता है कि स्वामी जी नंगे रहा करते थे। लगभग 48 वर्ष की उम्र के बाद उन्होंने कपड़े पहनने प्रारम्भ किए। क्या यहीं चरित्र चिंतन है एक ब्रह्मचारी का ? क्या कोई धर्मग्रंथ किसी ब्रह्मचारी अथवा संन्यासी को नंगा रहने की अनुमति देता हैं ?


अब जहाँ तक गर्भाधान विधि का प्रश्न है, यह तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसे तो न केवल अनपढ़, गवार मनुष्य जानता है, बल्कि पशु-पक्षी भी जानते है। पशु-पक्षियों को कौनसे ‘ाास्त्रों का ज्ञान होता हैं ? उन्हें भला कौन यह सब सिखाता हैं?


स्वामी जी ने गर्भाधान की उक्त विधि के साथ यह भी बताया कि गर्भास्थिति (च्तमहदंदबल) का निश्चय हो जाने के बाद एक वर्ष तक स्त्री-पुरूष को समागम नहीं करना चाहिए, क्यांेकि ऐसा करने से अगली संतान निकृष्ट पैदा होती है, दोनों की आयु घट जाती है और अनेक प्रकार के रोग होते है। आगे यह भी लिखा है कि संतान के जन्म के बाद स्त्री योनिसंकोचादि भी करे।

स्वामी जी से किसी ने उक्त विषय से संबंधित निम्न सवाल भी किया-


प्रश्न- जब एक विवाह होगा, एक पुरूष को एक स्त्री और एक स्त्री को एक पुरूष रहेगा तब स्त्री गर्भवती, स्थिररोगिणी अथवा पुरूष दीर्घरोगी हो और दोनों की युवावस्था हो, रहा न जाय तो फिर क्या करें ?उत्तर- इस का प्रत्युत्तर नियोग विषय में दे चुके हैं और गर्भवती स्त्री से एक वर्ष समागम न करने के समय में पुरूष व स्त्री से दीर्घरोगी पुरूष की स्त्री से न रहा जाए तो किसी से नियोग करके उसके लिए पुत्रोत्पत्ति कर दे, परन्तु वेश्यागमन वा व्यभिचार कभी न करें। (4-149)
अब पहले तो उस सवाल पर ध्यान दीजिए, जिसमें  स्वामी जी से पूछा गया है कि यदि किसी पुरूष की पत्नी गर्भवती हो और पुरूष की युवावस्था (ल्वनदह ।हम) हो और उससे न रहा जाए तो वह पुरूष क्या करे? स्वामी जी ने बताया कि वह किसी अन्य की पत्नी से नियोग करके पुत्रोत्पत्ति कर दे। अब यहां सभ्य और बुद्धिजीवी लोग ग़ौरे करें कि अगर किसी गाँव में 10 पुरूष ऐसे है जिनकी स्त्री गर्भवती है और स्त्री एक भी ऐसी नहीं है जिसे पुत्र की इच्छा हो, तो ऐसी स्थिति में वे 10 युवापुरूष कहां जाए? तीसरी बात यह कि युवा गर्भवती स्त्रियों का क्या होगा? क्या गर्भवती होने पर स्त्री की कामेच्छा समाप्त हो जाती हैं? अगर उनके अंदर यौन इच्छा हो, तो वे क्या करें?
चैथी बात जो कही गई है कि गर्भवती स्त्री से समागम करने से वीर्य व्यर्थ जाएगा, अगली संतान निकृष्ट पैदा होगी, आयु घट जाएगी, अनेक प्रकार के रोग हो जाएंगे। क्या ये सब बातें चिकित्सा विज्ञान की (डमकपबंस ैबपमदबम) की दृष्टि से तर्क पूर्ण है ? स्वामी जी ब्रह्मचारी और योगी थे, मगर उनका स्वास्थ्य आम गृहस्थी से अच्छा नहीं था। 58-59 साल की आयु में स्वामी जी का वजन लगभग 150 कि0 ग्राम होना क्या अच्छे स्वास्थ्य का लक्षण है। क्या स्वामी जी की उक्त सभी प्रकार की सलाह (।कअपेमम) अतार्किक और अव्यावहारिक नहीं है ? न मालूम स्वामी जी ने कौनसा धर्मग्रंथ और चिकित्सा विज्ञान (डमकपबंस ैबपमदबम) पढ़कर उक्त सलाह (।कअपबम) गृहस्थियों को दी है?

आगे स्वामी जी ने जैसा कि लिखा है कि संतान के जन्म के बाद स्त्री योनिसंकोचादि करे और छह दिन के बाद स्तन के अग्र भाग पर ऐसा लेप करे कि दूध स्रवित न हो। यहां ये दोनों बातें भी स्वामी जी से पूछने की है कि आख़िर ये योनिसंकोचादि क्या है? यह किस प्रकार होता है ? दूसरी बात यह भी स्वामी जी से पूछने की है कि क्या प्रसव के छह दिन के बाद स्त्री का दूध रोकना प्राकृतिक व्यवस्था के विरूद्ध नहीं हैं? तीसरी बात यह कि क्या धायी स्त्री नहीं होती, आख़िर वही बच्चे को दूध क्यों पिलाए? क्या स्वामी जी की सारी बातें बेतुकी नहीं हैं?
अश्लील विषय से संबंधित समुल्लास-14 में कुरआन की कुछ आयतों की समीक्षा के कुछ अंश भी देखिए -


.............. वाह क्या कहना इसके बहिश्त की प्रशंसा कि वह अरबदेश से भी बढ़कर दीखती है! और जो मद्य मांस पी-खाके उन्मत्त होते हैं इसलिए अच्छी-अच्छी स्त्रियाँ और लौंडे भी वहाँ अवश्य रहने चाहिए नहीं तो ऐसे नशेबाजों के शिर में गरमी चढ़ के प्रमत्त हो जावें। अवश्य बहुत स्त्री-पुरूषों के बैठने सोने के लिए बिछौने बड़े-बड़े चाहिए। जब खुदा कुमारियों को बहिश्त में उत्पन्न करता है तभी तो कुमारे लड़कों को भी उत्पन्न करता है। भला कुमारियों का तो विवाह जो यहाँ से उम्मेदवार होकर गये हैं उनके साथ खुदा ने लिखा पर उन सदा रहनेवाले लड़कों का भी किन्हीं कुमारियों के साथ विवाह न लिखा तो क्या वे भी उन्हीं उम्मेदवारों के साथ कुमारीवत् दे दिये जावेंगें? इसकी व्यवस्था कुछ भी न लिखी। यह खुदा से बड़ी भूल क्यों हुई? यदि बराबर अवस्थावाली सुहागिन स्त्रियाँ पतियों को पाके बहिश्त में रहती हैं तो ठीक नहीं हुआ, क्योंकि स्त्रियों से पुरूष का आयु दूना-ढाई गुना चाहिए, यह तो मुसलमानों के बहिश्त की कथा है (14-143)

दूसरी जगह देखिए स्वामी जी क्या लिखते हैं -
क्योंजी मोती के वर्ण से लड़के किस लिए वहाँ रक्खे जाते हैं? क्या जवान लोग सेवा वा स्त्रीजन उनको तृप्त नहीं कर सकतीं? क्या आश्चर्य है कि जो यह महा बुरा कर्म लड़कों के साथ दुष्ट जन करते हैं उसका मूल यही कुरान का वचन हो और बहिश्त में स्वामी सेवकभाव होने से स्वामी को आनन्द और सेवक को परिश्रम होने से दुःख तथा पक्षपात क्यों हैं ? और जब खुदा ही उनको मद्य पिलावेगा तो वह भी उनका सेवकवत् ठहरेगा, फिर खुदा की बड़ाई क्योंकर रह सकेगी? और वहाँ बहिश्त में स्त्री-पुरूष का समागम और गर्भस्थिति और लड़के-बाले भी होते हैं वा नहीं ? यदि नहीं होते तो उनका विषय सेवन करना व्यर्थ हुआ और जो होते हैं तो वे जीव कहाँ से आये?  और बिना खुदा की सेवा के बहिश्त में क्यों जन्मे? यदि जन्मे तो उनको बिना ईमान लाने और किन्हीं को बिना धर्म के सुख मिल जाए इससे दूसरा बड़ा अन्याय कौन-सा होगा? (14-152)


उक्त कुरआन की समीक्षा को पढ़कर क्या ऐसा नही लगता, जैसे कोई बद-जबान आदमी शराब पीकर अनाप-शनाप बकना शुरू कर दे? एक विद्वान और सभ्य पुरूष का अपना एक बौद्धिक स्तर (Intellectual Level) और एक नैतिक स्तर (Moral Standred) होता है। वह अपनी बात शिष्टता और सभ्यता के साथ कहता है बशर्ते वह आलोचना अथवा विरोध ही क्यों न कर रहा हो। उसके तर्कों में गहनता और गंभीरता होती है। मेरा तो यही मानना है कि एक विद्वान और पुण्यात्मा पुरूष कभी ऐसी अनाप-शनाप बातें (Talking) नहीं कर सकता।

............ एक हण्डे में चुड़ते चावलों में से एक चावल की परीक्षा करने से कच्चे वा पक्के हैं सब चावल विदित हो जाते हैं। ऐसे ही इस थोड़े से लेख से सज्जन लोग बहुत सी बातें समझ लेंगे। बुद्धिमानों के सामने बहुत लिखना आवश्यक नहीं, क्योंकि दिग्दर्शनवत् सम्पूर्ण आशय को बुद्धिमान लोग जान ही लेते हैं। (12-232)

कितने सत्य हैं ये तथ्य ? satyarth prakash sameeksh-II-edition

वेदों के महापंडित और तर्कसंगत विचारों के पोषक स्वामी दयानंद सरस्वती  द्वारा ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में वर्णित और इस पुस्तक के आलेख, ‘सत्यार्थ प्रकाश-भाषा, तथ्य और विषय वस्तु’ में अंकित कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की संक्षिप्त समीक्षा निम्न प्रकार है -
1. तथ्य - प्रसूता छह दिन के पश्चात् बच्चे को दूध न पिलावे। (2-3) (4-68)
समीक्षा - ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के रचयिता ने लिखा है कि प्रसूता छः दिन के बाद बच्चे को दूध न पिलाए। इसका कारण यह लिखा है कि बच्चा प्रसूता के शरीर का अंश होता है। स्त्री प्रसव समय निर्बल हो जाती है। दूध रोकने का उपाय भी बताया है कि प्रसूता स्त्री स्तन के छिद्र पर उस औषधि का लेप करें जिससे दूध स्रवित न हो। ऐसा करने से दूसरे महीने में स्त्री युवति हो जाती है। (2-3) (4-68)
उक्त बात जो ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखी है, प्रकृति और विज्ञान दोनों के शत-प्रतिशत खि़लाफ़ है। सृष्टिकर्ता ने स्त्री जाति में स्तन और दूध की व्यवस्था आखि़र किसलिए रखी है? पशु भी अपने बच्चों को दूध पिलाते है, उनके बच्चे भी उनके शरीर का अंश ही होते हैं? चिकित्सा विज्ञान के अनुसार माता के दूध से उपयोगी बच्चे के लिए कोई आहार नहीं हो सकता। माँ का दूध बच्चे के आदर्श पोषण का अद्वितीय साधन है। प्रथम छः माह के दौरान स्तनपान के सिवा बच्चे को अन्य कोई पेय पदार्थ नहीं देना चाहिए। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में जो बात कही गई है वह नितांत अज्ञानपूर्ण और नासमझी की है।
माता द्वारा अपने बच्चे को दूध पिलाना न केवल बच्चे के लिए उपयोगी है बल्कि माता के स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक है। विज्ञान ने प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है कि जो माताएं अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाती, उन स्त्रियों में छाती और अण्डाशय का कैंसर होने की संभावना अत्याधिक होती है। प्रसव के शीघ्र उपरांत स्तनपान आरम्भ करने से माँ को होने वाले प्रसवोत्तर रक्तस्राव और रक्ताल्पता का खतरा कम हो जाता है। केवल स्तनपान से माँ की प्रतिरक्षण प्रणाली को मजबूती मिलती है, अगला गर्भ जल्दी नहीं ठहरता। माँ का दूध न केवल बच्चे के लिए पौष्टिक होता है बल्कि बच्चे के अन्दर बीमारियों से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता भी उत्पन्न करता है।
बच्चों के लिए कार्यरत संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रंस इमरजेंसी फंड (यूनीसेफ) ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि माताओं द्वारा अपने नवजात शिशुओं को अपना दूध न पिलाने के कारण भारत में ही प्रतिवर्ष लगभग 16 लाख बच्चे जन्म के पहले साल में ही काल कलवित हो जाते हैं। एजेंसी के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष एक करोड़ से ज्यादा बच्चे अतिसार और न्यूमोनिया के कारण मौत के शिकार होते हैं, अगर माताएं अपने नवजात शिशुओं को  दूध पिलाए तो इन बीमारियों को रोका जा सकता है।
स्तनपान माँ व नवजात शिशु के बीच एक सर्वाधिक स्वाभाविक प्रक्रिया है। माँ के दूध में आवश्यक पोषक तत्त्व, एंटीबॉडीज हार्मोन,  प्रतिरोधीकारक और ऑक्सीडेंट पाए जाते हैं जो नवजात शिशुओं के शुरुआती छः माह की वृद्धि के लिए ज़रूरी होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार पर्याप्त मात्रा में स्तनपान का लाभ न मिलने के कारण जन्म के प्रथम वर्ष में लाखों बच्चे मौत का शिकार बन जाते हैं। विश्व में स्तनपान को बढ़ावा देने के लिए सन् 1992 से प्रतिवर्ष 1 से 7 अगस्त तक 120 देशों में स्तनपान सप्ताह आयोजित किया जाता है, जिसका मुख्य उद्देश्य स्तनपान के बारे में फैले भ्रम को समाप्त करना है।
    ऋग्वेद में भी माता द्वारा बच्चे को स्तनपान का उल्लेख मिलता है ः-
‘‘अद्येदु प्राराीदमन्निमाहापीवृतो अधयन्मातुरूधः।
एमेनभाप जरिमा युवानमहेळनव्सुः सुमना बभूव।।
  (ऋग्वेद 10-32-8)
भावार्थ ः जीव गर्भ में प्राण धारण करता है तथा नाना संकल्पों को सोचने लगता है। पैदा होकर देह में रहकर माता के स्तन का पान करता है। वाणी की शक्ति से युक्त होकर गुरु के पास निवास कर योग्य मन और बुद्धि वाला हो जाता है।’’

2.तथ्य - 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरूष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (3-31) (4-20) (14-143)
समीक्षा- जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम है। यहां सोचने की बात है कि लड़के और लड़की की उम्र में 24 या 30 साल के अंतर को उत्तम विवाह कैसे कहा जा सकता है? उत्तम विवाह के लिए तो लड़का-लड़की दोनों जवान (ल्वनदह) हो और दोनों की उम्र में 3-4 साल से अधिक का अंतर न हो, यही व्यावहारिक और उत्तम है। 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह क़तई अव्यावहारिक और असंगत है। इस तरह के उत्तम विवाह का प्रचलन शायद ही किसी समाज में कभी रहा हो, वैदिक समाज में भी नहीं। हमारे धर्मग्रंथ भी 25 वर्ष की उम्र में पुरुष को गृहस्थ जीवन में प्रवेश की अनुमति देते हैं। 48 वर्ष की उम्र में पुरुष की ‘शादी से तो शादी का उद्देश्य ही अधूरा रह जाएगा। मानव प्रकृति और चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो स्त्री पुरुष के विवाह में इतनी लम्बी अवधि के अंतर से वैवाहिक संबंधों के साथ-साथ वैचारिक तालमेल का भी अभाव रहेगा। उम्र के साथ ही मनुष्य में वैचारिक परिपक्वता ;डंजनतपजलद्ध आती है। विचार ही स्त्री-पुरुष के संबंधों में प्रगाढ़ता लाते हैं। शारीरिक ऊर्जा में असमानता और विचारों में विभिन्नता का प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ेगा। 24 वर्ष की स्त्री में सेक्स ऊर्जा बढ़ोतरी की तरफ़ होगी, जबकि 48 वर्ष के पुरुष में यह ऊर्जा उतार की तरफ होगी। सोचिए! दोनों का वैवाहिक जीवन कैसे खुशहाल रहेगा। वैवाहिक जीवन की सफलता और खुशहाली के लिए यह अतिआवश्यक है कि दोनों में सेक्स ऊर्जा एक ही दिशा में हो। स्वामी जी के किसी एक अनुयायी ने भी शायद कभी इतनी उम्र में विवाह करके उत्तम विवाह का उदाहरण प्रस्तुत किया हो। स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित उक्त उत्तम विवाह पारिवारिक और सामाजिक दोनों व्यवस्थाओं के लिए अनुचित है। स्वामी जी का उक्त तथ्य अव्यावहारिक तो है ही, बुद्धिहीनता का परिचायक भी है।


3.तथ्य - गर्भ स्थिति का निश्चय होने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)
समीक्षा - स्वामी जी का यह तथ्य भी क़तई अव्यावहारिक है। विवाह का उद्देश्य केवल संतानोत्पत्ति करना ही नहीं होता बल्कि स्वच्छंद यौन संबंधों को रोकना, भावनाओं को संयमित करना और जीवन में सुख सकून प्राप्त करने के लिए भी किया जाता है। चिकित्सा विज्ञान की दृष्टि से स्त्री और पुरुष में नियमित सेक्स संबंधों का होना अतिआवश्यक है। गर्भ स्थिति का निश्चय होने के बाद एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष में सेक्स संबंधों को प्रतिबंधित करने का न कोई शारीरिक लाभ है और न नैतिक। न मालूम इस तरह की बातें करने का स्वामी जी का क्या उद्देश्य और औचित्य रहा होगा ? स्वामी जी अगर विवाह करते और फिर इस तरह की सलाह देते तो शायद उनकी बात में कुछ सार्थकता दिखाई पड़ती। स्वामी जी ने न स्वयं विवाह किया और न ही स्वामी जी के किसी अनुयायी ने इस नियम का पालन किया होगा। यह एक विडंबना ही है।


4.तथ्य - जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरूष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)
समीक्षा- स्वामी जी ने नियोग को एक वेद प्रतिपादित और स्थापित व्यवस्था माना है, परंतु अफ़सोस का विषय है कि खुद स्वामी जी ने अपने जीवन में इस व्यवस्था का पालन करके अपने अनुयायियों के लिए कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं किया, अगर स्वामी जी ऐसा करते तो इससे स्वामी जी के चरित्र को भी बल मिलता और एक मृत प्रायः हो चुकी वैदिक परंपरा पुनः जीवित हो जाती। सन् 1875 ई0 से अब तक स्वामी जी का कोई एक अनुयायी ही यह बताए कि उसने किसी विधवा से नियोग करके पुत्र उत्पन्न किया हो ? कोई भी नियम अथवा सिद्धांत कितना भी अच्छा हो, अगर वह हमारे अमल में नहीं है तो उसके अच्छा होने का कोई महत्व नहीं है। (विस्तार से पढें - नियोग और नारी)

5. तथ्य - यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)
समीक्षा- यह एक वैज्ञानिक (Scientific) सत्य Truth है कि जब किसी वस्तु को जलाया जाता है तो उसके जलने से कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस CO2 उत्पन्न होती है। हवन सामग्री कार्बन (C) के कारण और ऑक्सीजन CO2 की उपस्थिति में ही जल सकती है। अभिक्रिया देखिए -
C + O2 = CO2

जैसा कि उक्त अभिक्रिया से स्पष्ट है कि हवन सामग्री के जलने से ऑक्सीजन (व्2) का हृास (सवेे) होगा और कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस CO उत्पन्न होगी। हवन सामग्री का मुख्य घटक ;ब्वउचवदमदजद्ध गाय के घी को माना जाता है। घी अर्थात् वसा (थ्ंज) एक कार्बनिक पदार्थ होता है। वसा (थ्ंज) में कार्बन तत्व अधिक मात्रा में होने के कारण इसके जलाने से और अधिक मात्रा में कार्बन डाइ आॅक्साईड गैस (ब्व्2) उत्पन्न होगी।
यह भी वैज्ञानिक तथ्य (ैबपमदजपपिब ंिबज) है कि कार्बन डाइ आॅक्साइड गैस (ब्व्2) वातावरण को प्रदूषित (च्वससनजमक) करती है। हिंदू विद्वानों और धर्मगुरुओं की धारणा (ब्वदबमचज) है कि गाय के घी के साथ हवन और यज्ञ करने से ऑक्सीजन गैस (व्2) उत्पन्न होती है, जिससे वातावरण शुद्ध  होता है। यह क़तई मिथ्या और भ्रामक
धारणा है। यज्ञ और हवन करने से वातावरण सुगंधित तो हो सकता है, शुद्ध  नहीं हो सकता।
वातावरण को शुद्ध करने के लिए हमें कुछ ऐसा करना होगा, जिससे आॅक्सीजन (व्2) उत्पन्न हो। इसके लिए बेहतर तरीका यह है कि हम अधिक से अधिक पेड़ लगाए, दीपावली के दिन गंधक और पोटाश का प्रयोग बिल्कुल न करें, पॉलिथीन आदि का प्रयोग बंद कर दें।
गाय के घी को आग में जलाकर यह समझना की इससे वातावरण शुद्ध  होता है, ठीक ऐसा ही जैसे किसी आयुर्वेदिक औषधि में गाय का मूत्र मिलाकर यह समझना कि ऐसा करने से औषधि शुद्ध  और गुणकारी होती है।
घी एक अत्यंत ही महत्वपूर्ण और कीमती पदार्थ है। यह मनुष्य के आहार का एक अति महत्वपूर्ण और अतिउत्तम घटक (ब्वउचवदमदज) है। इसको आग में जलाना बेवकूफ़ी तो है ही, नैतिक अपराध भी है।

    6.तथ्य- मांस खाना जघन्य अपराध है। मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों को भी यह पाप लगता है। पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। (10-11 से 15)
समीक्षा- समीक्षा के लिए पढ़ंे - मांसाहार संबंधी विषय


7. तथ्य - मुर्दों को गाड़ना बुरा है क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देते हैं। (13-41, 42)
समीक्षा- समीक्षा के लिए पढ़ें - दाह संस्कार ः कितना उचित ?


8. तथ्य - लघुशंका के पश्चात् कुछ मुत्रांश कपड़ों में न लगे, इसलिए ख़तना कराना बुरा है। (13-31)
समीक्षा - ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के रचयिता ने लिखा है कि अगर ख़तना कराना ईश्वर को इष्ट होता तो वह ईश्वर उस चमड़े को आदि सृष्टि में बनाता ही क्यों ? और जो बनाया है वह रक्षार्थ है जैसा आँख के ऊपर चमड़ा। वह गुप्त स्थान अति कोमल है जो उस पर चमड़ा न हो तो एक चींटी के काटने और थोड़ी चोट लगने से बहुत सा दुःख होवे और लघुशंका के पश्चात् कुछ मूत्रांश कपड़ों में न लगे आदि बातों के लिए ख़तना करना बुरा है। ईसा की गवाही मिथ्या है, इसका सोच-विचार ईसाई कुछ भी नहीं करते। (13-31)

‘सत्यार्थ प्रकाश’ के लेखक का यह कहना कि अगर ख़तना कराना ईश्वर को पसंद होता तो वह चमड़ा ऊपर लगाता ही क्यों ? यह कोई बौद्धिक तर्क नहीं है ? सृष्टिकर्ता ने मनुष्य को नंगा पैदा किया है, इसका मतलब यह तो हरगिज़ नहीं है कि मनुष्य कपड़े ना पहने, नंगा ही जिये, नंगा ही मरे, गंदा पैदा होता है, गंदा ही रहे। नाखून और बाल आदि भी न कटवाए। दूसरी बात यह कि सृष्टिकर्ता ने चींटी व चोट आदि से सुरक्षा हेतु झिल्ली की व्यवस्था की है। जिस चमड़ी की व्यवस्था सृष्टिकर्ता ने की है वह चमड़ी या झिल्ली न चींटीं रोधक है और न ही चोट रोधक। वह झिल्ली स्वयं इतनी अधिक कोमल है कि उसे खुद सुरक्षा की आवश्यकता है। तीसरी बात कि लघुशंका के पश्चात् कुछ मूत्रांश कपड़ों पर न लगे इसलिए झिल्ली की व्यवस्था की गई है। झिल्ली में कोई सोखता तो लगा नहीं कि वह मूत्रांश को अपने अंदर सोख लेगा। झिल्ली होने से तो और अधिक मूत्रांश झिल्ली में रूकेगा और कपड़ों को गीला और गंदा करेगा। यह तो एक साधारण सी बात है इसमें किसी शोध की भी आवश्यकता नहीं है। जहाँ तक पेशाब की बात है पेशाब ‘ारीर की गंदगी है, इसे धोया जाए तो नुकसान ही क्या है? मगर लेखक ने पेशाब धोने की बात कहीं नहीं लिखी है, जबकि हिंदू ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है। एक उदाहरण देखिए -
एका लिंगे  गुदे  तिस्रस्तथैकत्र  करे दश ।
उभयोः सप्त दातव्याः मृदः ‘शुद्धिमभीप्सता ।।
(मनु0, 5-139)
भावार्थ - शुद्धि के इच्छुक व्यक्ति को मूत्र करने के उपरांत लिंग पर एक बार जल डालना चाहिए । मलत्याग के उपरांत गुदा पर तीन बार मिट्टी मलकर दस बार जल डालना चाहिए और जिस बायें हाथ से गुदा पर मिट्टी मली है व जल से उसे धोया है, उस पर दस बार जल डालते हुए दोनों हाथों पर सात बार मिट्टी मलकर उन्हें जल से अच्छी प्रकार धोना चाहिए ।
यहाँ यह भी विचारणीय है कि लेखक ने अपनी समीक्षा में केवल ईसा मसीह और ईसाइयों का ही उल्लेख किया है जबकि ख़तना तो यहूदी और मुसलमान भी कराते हैं।
भारतीय वैज्ञानिकों ने शोध कर दावा किया है कि ख़तना कराने वाले लोगों में एच.आई.वी. संक्रमण होने के आसार अन्य लोगों की तुलना में छः गुना कम होते हैं। एक विज्ञान की पत्रिका में यह भी बताया गया है कि पुरुषों की जनेन्द्रिय की पतली चमड़ी पर एच.आई.वी. संक्रमण ज्यादा कारगर तरीके से हमला करता है। ख़तना कराकर अगर चमड़ी को हटा दिया जाए तो संक्रमण का ख़तरा कम हो जाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि ख़तने के द्वारा  एच.आई.वी. संक्रमण से बचाव हो सकता है, क्योंकि लिंग की बाहरी पतली झिल्ली एच.आई.वी. के लिए आसान शिकार है। ख़तना जनेन्द्रिय की झिल्ली के अन्दर जमा होने वाले पसेव (गंदगी) से तो बचाता ही है साथ ही पुरुष के पुरुषत्व को भी बढ़ाता है। इसका मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। ख़तना के एड्स जैसी अन्य ख़तरनाक बीमारियों से बचाव के दूरगामी लाभ भी हो सकते हैं जो अभी मनुष्य की आंखों से ओझल हैं।


9. तथ्य - दंड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधर पर होना चाहिए। (6-27)
   समीक्षा- समीक्षा के लिए पढ़ें - मनु स्मृति अपराध और दंड


10. तथ्य - ईश्वर के न्याय में क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता । (14-105)
समीक्षा - मनुष्य अपनी आंखों से रोज़ देख रहा है कि एक व्यक्ति जीवन भर दूध में पानी मिलाकर बेचता है। एक व्यक्ति जीवन भर लूट-खसोट करता है। एक व्यक्ति जीवन में हज़ारों मनुष्यों का कत्ल करता है, मगर यहां कभी किसी का बाल-बांका नहीं होता। अब सोचिए! यहां न्याय हो कहां रहा है ? पाठक बताए कि स्वामी जी की धारणा में कितना दम है ? चतुर्थ समुल्लास के 98वें क्रम में स्वामी जी लिखते हैं कि जिस समय मनुष्य अधर्म करता है उस समय फल नहीं मिलता, इसलिए अज्ञानी मनुष्य अधर्म से नहीं डरता। क्या यहां स्वामी जी ने अपनी ही धारणा को नहीं झुठला दिया है ?


11. तथ्य - ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता।      (7-52) (14-15)
समीक्षा - स्वामी जी का यह कहना कि ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता, इससे लगता है कि स्वामी जी की ईश्वर के अस्तित्व, दयालुता और महानता के प्रति धारणा स्पष्ट (ब्समंत) नहीं थी। मनुष्य ग़लतियों का पुतला है। ग़लती करना उसके स्वभाव में है। शायद ही दुनिया में कोई मनुष्य ऐसा हो जिसने कभी कोई पाप न किया हो। प्रत्येक मनुष्य से ग़लती होती है, इसीलिए वह ईश्वर से प्रायश्चित, प्रार्थना और याचना करता है। ईश्वर अत्यंत कृपालु और दयालु है, अगर वह अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता तो फिर मंदिर और मस्जिद, प्रार्थना और प्रायश्चित का औचित्य समाप्त हो जाता है। स्वामी जी की यह धारणा कि ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता, ईश्वर की महानता और दयालुता का इंकार है।

12. तथ्य - सूर्य केवल अपनी परिधि (ंगपे) पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर (वतइपज) नहीं घूमता। (8-71)
समीक्षा - ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के अष्टम समुल्लास में लिखा है कि सविता अर्थात् वर्षा आदि का कर्ता अपनी परिधि (।गपे) में घूमता है, किन्तु किसी लोक के चारों ओर (व्तइपजद्ध नहीं घूमता। (प्रश्न क्रम सं0 70)
स्वामी जी ने अपनी उक्त धारणा को सत्य साबित करने के लिए यजुर्वेद का एक मंत्र भी प्रस्तुत किया है।
‘‘आ कृष्णेन रजसा वत्र्तमानो निवेशयéमृतं मत्र्यं च।
हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।।’’
   (क्रम सं0 71)
आधुनिक विज्ञान इस निष्कर्ष पर पहुंच गया है कि सभी आकाशीय पिंड (।सस ब्मसमेजपंस ठवकपमे) न केवल अपनी धुरी ;।गपे) पर घूम रहे हैं, बल्कि अपनी-अपनी कक्षा ;व्तइपजद्ध में भी चक्कर लगा रहे हैं। जिस प्रकार हमारी पृथ्वी की अपनी धुरी (।गपे) पर औसत गति 1610 कि.मी. प्रति घंटा और अपनी कक्षा (व्तइपज) में औसत गति 107160 कि.मी. प्रति घंटा है, ठीक इसी प्रकार सूरज और चांद की गतियाँ हैं। हमारा सूर्य अपने परिवार और पड़ोसी तारों के साथ एक गोलाकार कक्षा (व्तइपज) में लगभग 9 लाख 60 हजार कि.मी. प्रति घंटा की अनुमानित गति से मंदाकिनी के केन्द्र के चारों ओर परिक्रमा कर रहा है, जबकि सूर्य को अपनी धुरी (।गपेद्ध पर एक पूर्ण चक्कर लगाने में 25.38 दिन का समय लगता है। इन वैज्ञानिक तथ्यों में अब कोई संदेह नहीं है, क्योंकि अब यह एक आंखों देखी सच्चाई है।
उक्त वैज्ञानिक सत्य से तो यहीं बात साबित हो रही है कि या तो स्वामी जी द्वारा प्रस्तुत वेद मंत्र में कहीं त्रुटि हैं, वह प्रमाणित नहीं है या फिर स्वामी जी द्वारा प्रस्तुत वेदार्थ ग़लत है।


13. तथ्य - सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य सृष्टि है। (8-73)
समीक्षा - सूरज और चांद पर मनुष्य आदि सृष्टि मुमकिन ही नहीं है। स्वामी जी की यह धारणा आधुनिक विज्ञान के ख़िलाफ़ है।  खगोल वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि सूर्य के केन्द्र का तापमान लगभग 6 हजार वब् और सतह का तापमान 15 करोड़ वब्  है। इसी प्रकार चांद का दिन में तापमान $130 वब् और रात का तापमान -180 वब् रहता है। सूरज और चाँद पर हवा और पानी है या नहीं इस बहस की यहां आवश्यकता नहीं है एक कम पढ़ा लिखा आदमी भी यह बात आसानी से समझ सकता है कि इतने अधिक तापमान पर मनुष्य तो क्या कोई भी जीव जिन्दा नहीं रह सकता।
जिस समय स्वामी जी ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ लिखा था, उस समय विज्ञान ने इतनी तरक्क़ी नहीं की थी, न मालूम स्वामी जी ने कहां से यह पता लगा लिया कि सूर्य, चाँद आदि पर मनुष्य आदि रहते है। इससे तो यहीं बात साबित हो रही है कि स्वामी जी को वेदों की भी समुचित जानकारी नहीं थी।


14. तथ्य - सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। (10-02)
समीक्षा- स्वामी दयानंद की यह धारणा कि सिर के बाल रखने से बुद्धि कम हो जाती है, बेतुकी और हास्यास्पद है। स्वामी जी ने लिखा है कि ब्राह्मण वर्ण का 16वें, क्षत्रिय वर्ण का 22वें और वैश्य वर्र्ण  का 24वें वर्ष में मुंडन होना चाहिए। इसके बाद केवल शिखा को रखकर दाढ़ी-मूंछ और सिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिए। अति उष्ण देश हो तो सब शिखा सहित छेदन करा देना चाहिए क्योंकि सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और बुद्धि कम हो जाती है। अब यहाँ पहला सवाल तो यह है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण का क्रमशः 16 वें, 22वें और 24वें वर्ष में मुंडन कराने का क्या बौद्धिक और वैज्ञानिक तर्क है? तीनों वर्णोंं के लिए अलग-अलग वर्ष निश्चित करने का क्या आधार है? क्या तीनों की गर्भावधि अलग-अलग होती है? दूसरी बात यह कि यहां शूद्र को क्यों छोड़ दिया गया है? क्या शूद्र मनुष्य जाति से नहीं होता?
तीसरी बात यह है कि वैदिक संस्कृति में इन्द्रिय संयम के साथ एक ब्रह्मचारी और संन्यासी का सिर के बाल कटाना और हजामत कराना निषिद्ध है। संन्यासियों के समाज में लम्बे बालों से उनके पद और प्रतिष्ठा का आकलन किया जाता है। हिंदू धर्म के अधिकतर गुरू, साधु-संन्यासी दाढ़ी के साथ सिर के बाल भी लम्बे रखते हैं। स्वामी दयानंद न मालूम किस आधार पर अपनी दाढ़ी मूंछ और सिर के बाल सदैव मुंडवाते रहते थे? चैथी बात यह कि स्त्रियों के लम्बे बालों को शुभ और अच्छा माना जाता है। क्या उष्णता से बचने के लिए स्त्रियों को भी गंजा रहना चाहिए? स्वामी दयानंद की यह धारणा कि सिर के बाल रखने से बुद्धि कम हो जाती है, बेतुकी और हास्यास्पद है। बालों का भला बुद्धि से क्या संबंध? सिर के बाल तो गर्मी-सर्दी से मनुष्य का बचाव करते हैं। बाल मनुष्य के शरीर की शोभा और उसके व्यक्तित्व की पहचान है।


15. तथ्य - स्वामी दयानंद ने लिखा है कि वेदों का अवतरण ऋषियों की मातृभाषा में न होकर संस्कृत भाषा में हुआ। संस्कृत भाषा उस समय किसी देश अथवा क़ौम की भाषा नहीं थी। कारण यह लिखा है कि अगर ईश्वर किसी देश अथवा क़ौम की भाषा में वेदों का अवतरण करता तो ईश्वर पक्षपाती होता, क्योंकि जिस देश की भाषा में वेदों का अवतरण होता उसको पढ़ने और पढ़ाने में सुगमता और अन्यों को कठिनता होती। (7-89) (7-92)
समीक्षा- जैसा कि स्वामी जी ने लिखा है कि वेद आदि ग्रंथ हैं। सृष्टि के आदि में परमात्मा ने मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा आदि चारों महर्षियों को चारों वेदों को ग्रहण कराया। (7-87) यहां सवाल यह पैदा होता है कि वेदों से पहले चारों ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा आदि की मूलभाषा कौन सी थी? दूसरा सवाल यह कि सृष्टि के आदि में पृथ्वी पर कितने देश और क़ौमे थी और उनमें कितनी भाषाएं बोली जाती थी? तीसरा सवाल यह कि वेदों के समय पृथ्वी पर विदेशी अगर थे और वे न ऋषियों की भाषा जानते थे और न ही संस्कृत जानते थे और न ही ऋषि विदेशियों की भाषा जानते थे तो ऋषियों ने उन्हें वेदों का ज्ञान किस प्रकार कराया?
अब जहां तक पक्षपात का सवाल है तो क्या ईश्वर ने सभी मनुष्यों को सभी सुख-सुविधाएं, स्वास्थ्य, ज्ञान, आयु आदि समान रूप से प्रदान की है? स्वामी जी का यह कहना कि अगर किसी देश भाषा में वेदों का प्रकाश होता तो ईश्वर पक्षपाती होता, अर्थपूर्ण, युक्ति-युक्त और स्वाभाविक नहीं है। स्वामी जी की उक्त धारणा विवेक पर
आधारित न होकर मात्र कल्पना पर आधारित है। आज विश्व में सभी बड़ी क़ौमों के पास अपनी-अपनी ईश्वरीय पुस्तकें हैं, जैसे तलमूद, तौरेत, जबूर, बाइबिल, कुरआन आदि। सभी पुस्तकों का अवतरण उसी भाषा में हुआ जो संदेशवाहक की मातृभाषा थी। वेद अगर सृष्टि की आदि पुस्तक है तो फिर यह भी सत्य है कि उस समय पृथ्वी पर चंद ही मनुष्य होंगे। सृष्टि के आदि में देश-विदेश और पक्षपात की बात करना ही बेवकूफ़ी होगी।
तथ्य- जो कुलीन शुभ लक्षणयुक्त शूद्र हो तो उसको मंत्र संहिता छोड़के सब शास्त्र पढ़ावे, शूद्र पढ़े, परन्तु उसका उपनयन न करें। (3-26)
समीक्षा- स्वामी जी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखते हैं, ..................9वें वर्ष के आरम्भ में द्विज अपनी सन्तानों का उपनयन करके गुरूकुल में भेज दें और शूद्रादि वर्ण उपनयन के बिना विद्या अभ्यास के लिए गुरूकुल में भेजें। (2-15) ब्राह्मण तीनों वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, क्षत्रिय, क्षत्रिय और वैश्य, तथा वैश्य एक वैश्य वर्र्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है और जो कुलीन शुभ लक्षणयुक्त शूद्र हो तो उसको मंत्रसंहिता छोड़ के सब शास्त्र पढ़ावे, शूद्र पढ़े, परन्तु उसका उपनयन न करें। (3-26) अब रहा सवाल यह है कि आखि़र शूद्र कौन है? एक बच्चा शूद्र है या ब्राह्मण?इसकी पहचान की कसौटी क्या है?
दूसरा सवाल यह है कि शूद्र का उपनयन क्यों नहीं होना चाहिए? तीसरा सवाल यह है कि जब सब मनुष्यों को वेदादि शास्त्र पढ़ने-सुनने का अधिकार है तो शूद्र को मंत्रसंहिता पढ़ने का अधिकार क्यों नहीं है?
चैथी बात यह है कि ‘कुलीन शुभ लक्षण युक्त शूद्र’ का यहां क्या आशय है? क्या शूद्र कई प्रकार के होते हैं?
यहां ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में वर्णित कुछ सवाल और उनके जवाब अति संक्षेप में दिए जा रहे हैं। निष्पक्ष पाठक इन्हें पढ़ कर बखूबी अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सवाल व जवाब कितने स्तरीय और महत्व के हैं।
किसी व्यक्ति ने स्वामी जी से सवाल किया कि मनुष्य की सृष्टि प्रथम हुई या पृथ्वी आदि की? स्वामी जी ने जवाब दिया कि पृथ्वी आदि की, क्योंकि पृथ्वी आदि के बिना मनुष्य की स्थिति और पालन सम्भव नहीं हो सकता (8-50)।
समीक्षा- क्या उक्त सवाल व जवाब से यह अंदाज़ा नहीं होता कि सवाल करने वाला नर्सरी क्लास का बच्चा है और जवाब देने वाला पांचवी क्लास का।
किसी ने स्वामी जी से यह सवाल किया कि जगत् के बनाने में परमेश्वर का क्या प्रयोजन है? उत्तर दिया गया कि नहीं बनाने में क्या प्रयोजन है? (8-16)
समीक्षा- क्या यह सवाल का उचित और पूर्ण जवाब है। यहां सवाल करने वाले का जवाब दिया गया है या सवाल करने वाले से सवाल किया गया है ? यह मानव जीवन से जुड़ा परम महत्व का सवाल था जिसे स्वामी जी ने कूड़ेदान में डाल दिया और जो आगे समझाया है वह भी स्पष्ट नहीं है।
किसी व्यक्ति ने स्वामी जी से सवाल किया कि-फल, मूल, कंद और रस इत्यादि अदृष्ट में दोष नहीं ? (10-18)
समीक्षा- यहां यह बात बताई गई है कि अगर कोई आर्य भंगी अथवा मुसलमान के घर का बना हुआ अदृश्य (बिना देखा) अथवा छुआ हुआ कुछ खाता है तो वह पाप का भागीदार होता है। क्या आज के वातावरण में इस तरह की संकीर्ण मानसिकता को अच्छा व व्यावहारिक कहा जा सकता है? आज तो सारी दुनिया एक हो गई है। हिंदू मुसलमान का अंतर ही समाप्त होता जा रहा है। आज प्रत्येक धर्म और जाति का व्यक्ति एक-दूसरे के घर आता-जाता और खाता-पीता है। अब रही मांस खाने की बात, मांस न केवल ईसाई और मुसलमान खाते हैं, बल्कि मांसाहारी तो हिंदू भी होते हैं। हिंदू तो न केवल मुर्गा, बकरा, मछली आदि का मांस खाते हैं, बल्कि वे तो घृणित जानवर सुअर का मांस भी खाते हैं। सुअर का मांस हिंदुओं के कुछ वर्गों में विषेश रूप से पसंद किया जाता है।
किसी ने महर्षि से यह सवाल भी किया कि लोग गाय के गोबर से चैका लगाते हैं, अपने गोबर से क्यों नहीं लगाते? महर्षि ने जवाब दिया कि गाय के गोबर में वैसा दुर्गन्ध नहीं होता जैसा मनुष्य के मल में होता है। (10-36)।
समीक्षा- निष्पक्ष पाठक सवाल और जवाब से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सवाल कितना गंभीर और परम महत्व का किया गया है और जवाब भी कितना तार्किक व गंभीर है?

क्या सवालकर्ता नहीं जानता कि मनुष्य के मल में दुर्गन्ध होती है? क्या सवालकर्ता ने कभी मनुष्य का मल नहीं देखा होगा? क्या सवालकर्ता मनुष्य जाति का न होकर अन्य किसी जाति का था? क्या जवाब देने वाला यह नहीं जानता था कि यह कोई सवाल नहीं बनता? दूसरी बात यह भी कि अगर किसी अनाड़ी अथवा अल्पबुद्धि व्यक्ति ने स्वामी जी से इतना बेहुदा और घिनौना सवाल किया भी था तो वेदों के  आधुनिक महापंडित को ऐसे सवाल को अपने महान ग्रंथ ‘‘सत्यार्थ प्रकाश’’ में लिखने की भला क्या ज़रूरत थी।?

जैन मतानुयायी ने सवाल किया कि देखो! तुम लोग बिना उष्ण किए कच्चा पानी पीते हो, वह बड़ा पाप करते हो। जैसे हम उष्ण पानी पीते हैं, वैसे तुम लोग भी पिया करो। उत्तर में कहा गया कि यह बात तुम्हारी भ्रम जाल की है, क्योंकि जब तुम पानी को उष्ण करते हो तब पानी के जीव सब मरते होंगे और उनका शरीर भी जल में रंधकर वह पानी सौंफ के अर्क तुल्य होने से जानों तुम  उनके ‘शरीरों का तेजाब’ पीते हो। इसमें तुम बड़े पापी हो और जो ठण्डा जल पीते हैं वे नहीं। (12-200)

समीक्षा- यहां स्वामी जी ने यह नहीं बताया कि पानी के अंदर वह कौन से बड़े जीव हैं जो रंधकर सौंफ के अर्क के तुल्य हो जाते हैं। दूसरी बात यह है कि स्वामी जी अगर ठण्डा पानी पीने को छोटा पाप समझते हैं, तो सब्जी, चाय, दूध आदि में जो पानी हम इस्तेमाल करते हैं उसमें भी तो जल के जीव रंधकर सौंफ के अर्क के तुल्य होते होंगे। क्या उससे बचा जा सकता है? तीसरी बात यह है कि जीव तो हवा में भी होते हैं उनसे कैसे बचा जाए? चैथी बात यह है कि उक्त में छोटे पापी व बड़े पापी की कौन-सी बात है, सांस भी सभी लेते हैं और पानी भी सभी पीते हैं अगर पानी में जीव है तो फिर पानी पीना ही पाप है, पानी गर्म हो या ठण्डा।

एक मुस्लिम मतावलंबी ने कहा कि खुदा सर्वशक्तिमान है, वह जो चाहे कर सकता है। उत्तर में कहा गया कि क्या खुदा दूसरा खुदा भी बना सकता है? अपने आप मर सकता है? मूर्ख, रोगी और अज्ञानी भी बन सकता है? (14-28)
समीक्षा- मुस्लिम मतावलंबी का यह कहना कि खुदा सर्वशक्तिमान है वह जो चाहे कर सकता है। कोई खुदा (ईश्वर) का इंकारी ही इस सत्य का इंकार कर सकता है। स्वामी जी द्वारा इस सत्य को रद्द करते हुए कहा गया है कि क्या खुदा दूसरा खुदा भी बना सकता है? अपने आप मर सकता है? मूर्ख रोगी और अज्ञानी बन सकता है? क्या उक्त जवाब बेतुका और मूर्खता पूर्ण नहीं है? क्या ख़ुदा (ईश्वर) वास्तव में सर्वशक्तिमान नहीं है?

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